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२- प्रत्यक्ष प्रमाणाधिकार
में भी मनुष्य लोक में स्थित को ही जाने इससे बाहर में स्थित को नहीं, अथवा मनुष्य लोक में भी कुछ योजन मात्र तक ही जाने उससे आगे नहीं । यह क्षेत्र की मर्यादा है |
ग. कुछ भव या वर्ष आगे पीछे की ही जाने अनादि व अनन्त काल की नहीं । यह काल की मर्यादा है ।
घ. पुद्गल के कुछ ही गुणों को अथवा कुछ ही रागादिक संयोगी भावों को जाने, सर्व गुणों व भावों को नहीं । उनकी भी कुछ मात्र पर्यायों को जाने सर्व को नहीं । यह भाव की मर्यादा है। नोट :- ( मर्यादा का यह कथन देशावधि की अपेक्षा जानना । परमावधि व सर्वावधि की विशेषता यथा स्थान बताई जायेगी । )
१ - न्याय
१८. क्या अवधि ज्ञान जीव की हालतों को जान सकता है ? शुद्ध जीव की हालतों को नहीं जान सकता क्योंकि वे अमूर्तीक हैं । अशुद्ध जीव की रागादि युक्त हालतों को जान सकता है, क्योंकि वे कथंचित मूर्तीक हैं ।
१६. अशुद्ध जीव की हालतों को मूर्तीक कैसे कहा ?
क्योंकि वे देश कालावच्छिन्न होने से सीमा सहित तथा विशेष आकार प्रकार वाली होती हैं ।
२०. अवधि ज्ञानी मुनिजन जीव के पहिले पिछले भव कैसे बता देते हैं ?
कर्मों व शरीर से बद्ध जीव को वे भव तथा हालतें आदि अन्त युक्त होने से विशेष आकार प्रकार को धारण कर लेती हैं । सिद्ध भगवान की हालतों वत् देशकालानवच्छिन्न अमूर्तीक नहीं होतीं ।
(२१) मन:पर्यय ज्ञान किसे कहते हैं ?
द्रव्य क्षेत्र काल व भाव की मर्यादा लिए हुए जो दूसरे के मन में तिष्ठे हुए रूपी पदार्थों को स्पष्ट जाने । ( अर्थात् विशेष आकार प्रकार युक्त मानसिक भावों को स्पष्ट जाने) । ( इसके विस्तार के लिए देखो आगे अध्याय २ का चौथा अधिकार ) ।