________________
५-गुणस्थान
२५१ २-गुस्थानाधिकार दर्शन और सम्यग्दर्शन का अविनाभावी सम्यग्ज्ञान अवश्य होता
है। इनके बिना पांचवं छटे आदि गुणस्थान नहीं होते। (२८) पांचवें गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है ?
चौथे गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध कहा है। उनमें से व्यच्छिन्न दश के घटाने पर शेष रहो ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है (व्युच्छित्ति की दस अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, मनुष्यगति, मनुष्यग यानुपूर्वो, मनुष्यायु, औदारिक
शरीर, औदारिक अगोपांग, व जर्षभ नाराच संहनन) (२६) पांचवें गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों का होता है ?
चौथे गुणस्थान में जो १०४ प्रकृतियों का उदय कहा है, उनमें से व्युच्छिन्न प्रकृति १७ के घटाने पर शेष रही ८७ प्रकृतियों का उदय है । (व्युच्छिन्न १७ = अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, देवायु, नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, वैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग, मनुष्य
गत्यानुपूर्वी तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीति) । ३०. गत्यानुपूर्वी का उदय यहां क्यों घटाया ?
क्योंकि पांचवें आदि गुणस्थानों में मृत्यु नहीं होती। मृत्यु के
समय चौथा या पहला स्थान हो जाता है। (३१) पांचव गुणस्थान में सत्व कितनी प्रकृतियों का रहता है ?
चौथे गुणस्थान में जो १४८ का सत्व रहना कहा है, उनमें से व्युच्छिन्न प्रकृति एक नरकायु के बिना १४७ का सत्व रहता है। किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा १४० का ही सत्व
रहता है। (३२) छटे प्रमतविरत गुणस्थान का स्वरूप क्या है ?
संज्वलन और नोकषाय के तीव्र उदय से संयम भाव तथा मलजनक प्रमाद ये दोनों ही युगपत् होते हैं । इसलिये इस गुणस्थानवर्ती मुनि को प्रमत्त विरत अर्थात चित्रलावरणी कहा है।