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५-गुणस्थान
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२-गुणस्थानाधिकार की तरह सम्यक् चारित्न की पूर्णता नहीं है। सम्यग्ज्ञान गुण यद्यपि चौथे गुणस्थान में ही प्रगट हो चुका था। भावार्थ- यद्यपि आत्मा का ज्ञान गुण अनादिकाल से प्रवाह रूप चला आ रहा है, तथापि दर्शनमोहनीय का उदय होने से वह मिथ्यारूप था । परन्तु चौथे गुण स्थान में जब दर्शनमोहनीय कर्म के उदय का अभाव हो गया, तब वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाने लगा। और पंचम आदि गुणस्थानों में तपश्चरण के निमित्त से अवधि व मनःपर्यय ज्ञान भी किसी किसी जीव के प्रगट हो जाते हैं; तथापि केवलज्ञान के हुए बिना सम्यग्ज्ञान गुण की पूर्णता नहीं हो सकती। इसलिये इस बारहवं गुणस्थान तक यद्यपि सम्यग्दर्शन की पूर्णता हो गई है (क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व के बिना क्षपक श्रेणी और क्षपक श्रेणी के अभाव में बारहवां गुगस्थान सम्भव नहीं ।) तथापि सम्यग्ज्ञान व सम्यक चारित्रगुण अभी तक अपूर्ण हैं, इसलिये यहां मोक्ष नहीं होता। तेरहवां गुणस्थान योगों के सद्भाव की अपेक्षा से होता है, इसलिये इसका नाम संयोग और केवलज्ञान के निमित्त से केवली है। इस गुणस्थान में सम्यग्ज्ञान पूर्ण हो जाने पर भी, योगात्म चारित्र की पूर्णता न होने से मोक्ष नहीं होता। चौदहवां गुणस्थान योगों के अभाव की अपेक्षा है, इसीलिये इसका नाम अयोग केवली है। इस गुणस्थान में सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों गुणों की पूर्णता हो जाने के कारण मोक्ष उससे दूर नहीं रह जाता । अ, इ, उ, ऋ, ल इन पांच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण करने में जितना काल लगता
है, उतने ही काल पश्चात मोक्ष लाभ करता है। (५) मिथ्यात्व गुणस्थान का क्या स्वरूप है ?
मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से अतत्वार्थ श्रद्धानरूप आत्मा के परिणाम विशेष को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं । इस मिथ्यात्व गुणस्थान मे रहनेवाला जीव विपरीत श्रद्धान करता है और