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२ - गुणस्थानाधिकार
गुणस्थान में आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण का प्रादुर्भाव हो जाता है । तीसरा गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्वरूप दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से होता है । इस गुणस्थान में आत्मा के परिणाम सम्यग्मिथ्यात्व अर्थात उभय रूप होते हैं । पहले गुण स्थान में औदयिक भाव, चौथे गुणस्थान में औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव और तीसरे गुणस्थान में औदयिक भाव होता है । परन्तु दूसरा गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म की उदय उपशम क्षय और क्षयोपशम इन चार अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था की अपेक्षा नहीं रखता है, इसलिये यहां पर दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा से पारिणामिक भाव है, परन्तु अनन्तानुबन्ध रूप चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होने से इस गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म की अपेक्षा औदयिक भाव भी कहा जा सकता है । इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी के उदय से सम्यक्त्व का घात हो गया है, इसलिये यहां सम्यक्त्व नहीं है और मिथ्यात्व का भी उदय नहीं है, अतः मिथ्यात्व परिणाम भी नहीं हैं । इसलिये यह गुणस्थान मिथ्यात्व व सम्यक्त्व की अपेक्षा से अनुदय रूप है ।
५- गुणस्थान
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पांचवें गुण स्थान से दसवें गुणस्थान तक छः गुणस्थान चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम होते हैं । इन गुणस्थानों से सम्यम्चार गुण की कर्म से वृद्धि होती जाती है । ग्यारहवां गुणस्थान चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से होता है इसलिये ग्यारहवें गुणस्थान में औपशमिक भाव होते हैं । यद्यपि यहां पर चारित्र मोहनीय कर्म का पूर्णतया उपशम हो गया है, तथापि योग का सद्भाव होने से पूर्ण चारित्र नहीं है, क्योंकि सम्यक् चारित्र के लक्षण में योग और कषाय के अभाव से सम्यक्चारित्र होता है ऐसा लिखा है। बारहवां गुणस्थान चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय से होता है, इसलिये यहां क्षायिक भाव पाया जाता है । इस गुण स्थान में भी ग्यारहवें गुणस्थान