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चतुर्थ प्रकाश
१. आत्मा की प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट एवं कर्मरूप में परिणत होने योग्य पुद्गलों को कर्म कहते हैं ।
वे कम-पुद्गल चतुःस्पर्शी एवं अनन्त-प्रदेशी होते हैं। व्यवहार में प्रवृत्ति का भी कर्म शब्द के द्वारा व्यपदेश किया जाता है।
६.
२. कर्म के आट प्रकार हैं:
१. जानावरण । ५. आयुष्य। २. दर्शनावरण। ६. नाम । ३. वेदनीय। ७. गोत्र । ४. मोहनीय । ८. अन्तराय।
ज्ञान को आवृत करने वाले कर्म को ज्ञानावरण और दर्शन को आवृत करने वाले कर्म को दर्शनावरण कहते हैं।
जो सुग्व-दुःख का हेतु होता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं।
दर्शन और चारित्र को विकृत कर आत्मा को व्यामूद बनाने वाला कर्म मोहनीय है।