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जैन सिद्धान्त दीपिका
३८. आशातना न करना और बहुमान करना विनय है ।
आशातना का अर्थ है - असद् व्यवहार | उसके वर्जन को
अनाशातना कहा जाता है ।
विनय के सात प्रकार हैं :
१. ज्ञानविनय
२. दर्शनविनय
४. मनविनय
५. वचनविनय
३. चारित्रविनय
६. कार्याविनय
७. लोकोपचार विनय - गुरु आदि बड़ों के आने पर खड़ा होना, आसन देना आदि ।
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३६. दूसरों का सहयोग करने के लिए व्यावृत होना वैयावृत्य है । वैयावृत्य के दस स्थान है : १. आचार्य
६.
शैक्ष ( नव-दीक्षित )
२. उपाध्याय
७.
बुन्न
३. स्थविर ( वृद्ध - साधु ) ८. गण ४. तपस्वी
२.
५. ग्लान - रोगी
१०.
मंघ - माधुओं के समूह विशेष
माधर्मिक
४०. श्रुत-अध्यात्मशास्त्र के अध्ययन को स्वाध्याय कहा जाना है ।
स्वाध्याय के पांच प्रकार है :
१. वाचना
२. प्रच्छना - पूछना
३. परिवर्तना - कंटस्थ ग्रन्थों की पुनरावृत्ति |
४. अनुप्रेक्षा- अर्थ चिन्तन
५. धर्म-कथा ।