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जैन सिद्धान्त दीपिका
१११ ५. चारित्र के पांच प्रकार हैं-सामायिक, छेदोपस्थाप्य, परिहार विणुद्धि, मूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यान ।
सर्वथा सावध योगों की विरति को मामायिक कहते हैं।
विभागपूर्वक महावनों की उपस्थापना को छेदोपस्थाप्य कहते हैं।
ये दोनों छठे से नौवें जीवस्थान तक होते हैं।
परिहार का अर्थ है -विशुद्धि की विशिष्ट माधना, उम विशुद्धिमय चारित्र का नाम परिहार्गवद्धि है ।
वह मानवें और छठे जीवस्थान में होता है ।
दसवें जीवस्थान में कपाय मूक्ष्म होता है, अतः उग जीवस्थान के चारित्र को मूक्ष्मसम्पगय कहा जाता है ।
वीतराग के चारित्र को यथाम्यान कहा जाता है।
यथास्यान चारित्र ग्यारहवे में चौदहवें जीवग्थान नक होता है।
६. महाव्रत, ममितियां, गुप्नियां और अनुप्रेक्षा चारित्र के अंग हैं।
७. महावन पांच हैं-अहिमा, मत्य, अम्नेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
हिमा आदि का आचरण नीन करण और नीन यांग मे--- - मन में, वाणी में और नगर में स्वयं न करना, दूमग में न कगना और करते हए का अनुमोदन न करना--- महावन है।
१. देख पणिप्टर