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जैन सिद्धान्त दीपिका
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जैसे कहा भी है- औदारिक, तंजस और कार्मण ये तीन शरीर संसार के मूल कारण हैं । मुक्त जीव उनको छोड़कर ऋजुश्रेणी से एक ही समय में लोकान्त तक चले जाते हैं ।
धर्मास्तिकाय की सहायता प्राप्त न होने के कारण उससे ऊपर नहीं जाने और वे हल्के होते हैं अतः फिर वापिस नीचे भी नहीं आते। योगरहित होने के कारण तिरछी गति भी नहीं करते ।
धूएं की तरह हल्के और तूंबे की तरह निर्लेप तथा मुच्यमान एरण्ड फली की तरह बन्धनमुक्त होने के कारण उनकी ऊर्ध्वगति होती है ।
वहां वे सादि, अनन्त, अनुपम एवं बाधारहित स्वाभाविक सुख को पाकर केवलज्ञान - केवलदर्शन से सहज आनन्द का अनुभव करते हैं ।
२४. मुक्तात्माओं के निवास स्थान को ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी कहते हैं । वह पृथ्वी समयक्षेत्र के बराबर लम्बी-चौड़ी है। उसके मध्यभाग की मोटाई आठ योजन की है और उसका अन्तिम भाग मक्खी के पर से भी अधिक पतला है । वह लोक के अग्रभाग में स्थित है । उसका आकार सीधे छत्ते जैसा है तथा वह श्वेत स्वर्णमयी है ।
मुक्ति, सिद्धालय – ये उसके नाम हैं ।
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२५. दो तत्त्वों में नव तत्त्वों का समावेश हो जाता है
वस्तुवृत्या जीव और अजीव ये दो ही तत्त्व हैं। पुण्य आदि इन्हीं की अवस्था विशेष हैं, जैसे—जीव, आश्रय, संवर, निर्जरा