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जन सिद्धान्त दीपिका
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७. वात्सल्य ८. प्रभावना निःशंकित-निष्कांक्षित-निविचिकित्सित-लक्ष्य और उसकी निप्पत्ति के साधनों के प्रति स्थैर्य ।
अमूढ दृष्टि-जिन प्रवचन में कौशल।
उपबृंहण-स्थिरीकरण-तीर्थसेवा-तीर्थ की वृद्धि और उसका स्थिरीकरण ।
वात्मल्य-भक्ति। प्रभावना-जिन प्रवचन की प्रभावना करना।
१२. सावद्यवृत्ति के प्रत्याख्यान को विरति कहते हैं।
पापकारी प्रवृत्ति और अन्तानसा इन दोनों को सावद्यवृत्ति कहते हैं। इनका त्याग करना विरति संवर है । वह पांचवें जीवस्थान में अपूर्ण और छठे से चौदहवें तक पूर्ण होता है।
१३. अध्यात्मलीनता को अप्रमाद कहा जाताहै ।
अध्यात्मलीनता का अर्थ है -- स्वभाव के प्रति पूर्ण लागरूकता।
अप्रमाद मंवर सातवें जीवस्थान से चौदहवें सक होता है।
१४. क्रोध आदि के अभाव को अकषाय कहते हैं।
अपाय मंबर वीतराग-अवस्था में ग्यारहवें जीवस्थान में चौदहवं जीवस्थान तक होता है।
१५. अप्रकम्प अवस्था को अयोग कहते हैं।
अयोग संवर शैलेशी-अवस्था (शल+ईश =शैलण-- मेरु,