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जैन सिद्धान्त दीपिका
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तक होता । अशुभयोग आश्रव छठे जीवस्थान तक तथा शुभयोग आश्रव तेरहवें जीवस्थान तक होता है ।
१५. अतत्त्व में होने वाले तत्त्वश्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं । दर्शनमोह के उदय से अतत्त्व (अयथार्थ ) में तस्व ( यथार्थ ) की प्रतीति होती है, वही मिध्यात्व है ।
१६. मिथ्यात्व के दो भेद हैं- अभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक । अभिनिवेशात्मक मिध्यात्व को अभिग्रहक और अज्ञानादिपूर्वक मिथ्यात्व की अनाभिग्रहिक कहते हैं ।
१७. अत्यागवृत्ति को अविरति कहते हैं ।
अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान मोह के उदय से आत्मा का हिंसा आदि में अत्यागरूप अध्यवसाय होता है, उसे अविरति कहते हैं ।
१८. अनुत्साह को प्रमाद कहते हैं ।
अरति आदि मोह के उदय से अध्यात्म (स्वभाव) के प्रति जो अनुत्साह होता है, उसका नाम प्रमाद है ।
१६. राग-द्वेषात्मक उत्ताप को कषाय कहते है ।