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जैन सिद्धान्त दीपिका
१२. द्रव्य और भाव का भेद होने के कारण पुण्य-पाप बन्ध से भिन्न होते हैं।
जिस वस्तु की जो क्रिया होनी चाहिए, वह उसमें न मिले, उसे यहां द्रव्य और जो अपनी क्रिया करता है, उसे भाव कहा गया है।
उदय में न आए हुए सत् एवं असत् कर्म पुद्गलों का नाम बन्ध है । इससे शुभाशुभ फल नहीं मिलता अतः इसको द्रव्य पुण्य-पाप कहते हैं । उदीयमान शुभ एवं अशुभ कर्म पुद्गलों का नाम पुण्य एवं पाप है। इनके द्वारा शुभ एवं अशुभ फल मिलता है, अतः ये भाव पुण्य पाप कहलाते हैं। बंध तथा पुण्य-पाप में यही अन्तर है।
१३. कर्म-आकर्षण के हेतुभूत आत्म-परिणाम को आश्रव कहते हैं।
जिस परिणाम से आत्मा में कर्मों का आश्रवण-प्रवेश होता है उसे आश्रव-कर्म-बन्ध का हेतु कहा जाता है।
'आश्रवदार' शब्द का प्रयोग भी मिलता है। वहां आश्रव का अर्थ आश्रवण-कर्म-प्रवेश है। उसके उपाय को 'माधव. द्वार' कर्म-बन्ध का हेतु कहा जाता है।
१४. आश्रव पांच हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।
मिथ्यात्व आश्रव पहले और तीसरे जीवस्थान में होता है। अविरति आश्रव पांचवें जीवस्थान तक होता है। प्रमाद आश्रय छठे जीवस्थान तक होता है। कषाय माधव दशवें जीवस्थान