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१, इन्द्रियप्रतिसंलीनता २. कपायप्रतिसंलीनता
३ विविक्तवास। १४ इन्द्रियों के विषय-प्रचार को रोकने (विषयो का ग्रहण न करने)
तथा जो विषय प्राप्त हो उन पर राग-द्वेष न करने को
इन्द्रियप्रतिसंलीनता कहा जाता है। १५. क्रोध, मान, माया और लोभ को उदय मे न लाने तथा वे उदय
में आ जाएं तो उन्हे विफल करने को कपाय-प्रतिसलीनता
कहा जाता है। १६ एकाग्रता मे वाधा डालने वाले तत्त्वो से रहित स्थान को
विविक्तवास कहा जाता है।
प्रतिसंलीनता मानसिक चचलता कुछ निमित्तो से होती है। उनमे पहला निमित्त इन्द्रिया है। वे जब वाह्य जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित करते है, तब मन को चचल वनाते है, इसीलिए साधना की भूमिका मे उनको अन्तर्मुखी करने का प्रयत्न किया जाता है। उनके अन्तर्मुख होने का अर्थ है-विपयो के साथ सम्पर्क स्थापित न करना। किन्तु इस जगत् मे यह कव सभव है कि हमारे इन्द्रिय विपयो से सर्वथा असम्पृक्त रह सके ? इस कोलाहलमय जगत् मे क्या यह संभव है कि कान हो और शब्द सुनाई न दे ? इस रूपमय जगत् मे क्या यह सभव है कि आख हो और रूप को न देखे ? वायु के साथ प्रवाहित होकर आने वाली गध को कैसे रोका जा सकता है ? रस और स्पर्श के सम्पर्क को भी सर्वथा नही रोका जा सकता। इस स्थिति मे हम विपयो से असम्पृक्त एक सीमा मे ही रह सकते है।
क्या इस स्थिति मे हम मानसिक चंचलता को रोकने में सफल हो सकते है ? नहीं हो सकते। किन्तु मनुष्य का शक्तिशाली मस्तिष्क नही को हा में बदल देता है। उसने एक विकल्प खोज निकाला कि मन की स्थिरता का अभ्यास करने वाला व्यक्ति विषयो के सम्पर्क से जितना वच सके, उतना वचे और न वच सकने की स्थिति मे वह उनके प्रति अनासक्त रहे। विपयो के असम्पर्क और अनिवार्यरूपेण प्राप्त विषयो के प्रति
मनोनुशासनम् / ७७