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अनासक्ति-ये दोनो मिलकर इन्द्रिय प्रतिसलीनता की प्रक्रिया को पूरा करते है। ___अभ्यास की अपरिपक्व दशा मे विषयो से वचाव करना बहुत उपयोगी है और जैसे-जैसे एकाग्रता का अभ्यास परिपक्व होता जाए, वैसे-वैसे विषयो से बचने की अपेक्षा उनके प्रति होने वाली आसक्ति से बचना बहुत आवश्यक है। विषयो से बचने की प्रवृत्ति हो और अनासक्ति का भाव न हो, उस स्थिति मे आन्तरिक पवित्रता पर बाह्याचार की विजय होती है। विषयो से बचने का प्रयत्न अनासक्ति की साधना का पहला चरण है। इसलिए उसकी उपेक्षा नही की जा सकती। सिद्धि का द्वार इन दोनो के सामजस्य होने पर ही खुलता है।
आसक्ति के कारण व्यक्ति के मन मे क्रोध, अभिमान, माया और लोभ के भाव उत्पन्न होते है और वे मन को व्यग्र वनाते है। उन पर विजय पाये बिना कोई भी व्यक्ति एकाग्रता को परिपुष्ट नही बना सकता
और इन्द्रियो को भी अन्तर्मुखी नही बना सकता। कषाय प्रतिसलीनता के चार साधन है ।
१. क्रोध-निवृत्ति के लिए उपशम भावना का अभ्यास। २ मान-निवृत्ति के लिए मृदुता का अभ्यास। ३ माया-निवृत्ति के लिए ऋजुता का अभ्यास।
४ लोभ-निवृत्ति के लिए संतोष-अपनी आन्तरिक समृद्धि के निरीक्षण का अभ्यास।
इन प्रतिपक्ष भावनाओ का पुन पुन अभ्यास करने से कषाय अपने हेतुओ मे विलीन हो जाता है।
आन्तरिक अनुभूति और शून्यता की गहराई मे जाने के लिए एकातवास बहुत मूल्यवान है। कोलाहलमय वातावरण मे हम दूसरो को सुनते है किन्तु अपने अन्तर की आवाज नही सुन पाते। रगीन वातावरण मे हम दूसरो को देखते है किन्तु इस शरीर में विराजमान चिन्मय प्रभु को नही देख पाते। एकान्तवास में अपने अन्त करण की आवाज सुनने और अपने प्रभु से साक्षात्कार करने का सुन्दर अवसर मिलता है। उससे हमारा मन बाह्य सम्पर्को से मुक्त होकर अपने शक्ति-स्रोत मे विलीन हो जाता है।
७८ / मनोनुशासनम्