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१७. आत्मानं प्रत्यनुप्रेक्षा स्वाध्यायः ॥
१७ आत्मा के विषय में अनुप्रेक्षा ( चिन्तन, मनन) करने को स्वाध्याय कहा जाता है ।
स्वाध्याय
योग के आचार्यों ने परमात्म-प्राप्ति के दो साधन माने है-ध्यान और स्वाध्याय | उन्होने लिखा है - स्वाध्याय करो और फिर ध्यान । ध्यान करो और फिर स्वाध्याय | इस प्रकार स्वाध्याय और ध्यान का अभ्यास करने से परमात्मा प्रकट हो जाता है
स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्ता, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत् ॥ परमात्मा प्रकाशते ॥
स्वाध्याय - ध्यान- सम्पत्त्या, स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है-पढ़ना । साधना के सदर्भ मे केवल पढ़ना स्वाध्याय नहीं है किन्तु आत्मा के विषय में जानना, विचार करना, मनन करना स्वाध्याय है। यह ध्यान का मूल बीज है । जिसका आत्मविचार स्पष्ट नही है, जिसे 'मै कौन हू' इस विषय की स्पष्ट धारणा नही है और जिसे आत्मा और शरीर के भेद - ज्ञान का बोध नही है. वह ध्यान की उत्कृष्ट भूमिकाओ मे कैसे प्रवेश पा सकता है ? इसलिए ध्यान के मूल वीज के रूप मे स्वाध्याय का बहुत बड़ा महत्त्व है।
१८ चेतोविशुद्धये मोहक्षयाय स्थैर्यापादनाय विशिष्टसंस्काराधानं भावना || १६. अनित्य- अशरण-भव - एकत्व - अन्यत्व - अशौच- आस्रव-संवर- निर्जरा-धर्मलोक-संस्थान - वोधिदुर्लभता ॥
२०. मैत्री प्रमोद - कारुण्य मध्यस्थताश्च ॥
२१. उपशमादिदृढभावनया क्रोधादीनां जयः ॥
१८ चित्त की शुद्धि, मोहक्षय तथा अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की वृत्ति को स्थिर करने के लिए जो विशिष्ट सस्कार आहित ( स्थापित ) किए जाते हैं, उनका नाम भावना है।
१६. भावनाएं बारह है :
मनोनुशासनम् / ७६
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