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१. अनित्य ७. आस्रव २ अशरण ८. सवर ३ भव ६ निर्जरा ४ एकत्व
१०. धर्म ५ अन्यत्व ११ लोक-सस्थान
६ अशौच १२. बोधि-दुर्लभता। इसका बार-बार चिन्तन करने से मोह क्षीण होता है, चित्त शुद्ध होता है-सतुलित होता है और कर्तव्य मे स्थिरता प्राप्त
होती है। २०. चार भवनाए और है । १. मैत्री
३ करुणा २. प्रमोट ४ मध्यस्थता। इनसे आत्मौपम्य, गुण-ग्रहण-वृत्ति, मृदुता और तटस्थता का विकास होता है। २१ उपशम आदि की दृढ भावना करने से-उनका बार-वार दृढ
अभ्यास करने से क्रोध आदि पर विजय प्राप्त होती है।
भावना 'कटकात् कटकमुद्धरेत्'-काटे से काटा निकालने की नीति साधना के क्षेत्र में भी लागू होती है। चित्त को वासनाओ से मुक्त करना साधक का लक्ष्य होता है, पर पहले ही चरण मे दीर्घकालीन वासनाओ को एक साथ निर्मूल नही किया जा सकता। उन्हे निरस्त करने के लिए नयी वासनाओ की सृष्टि करनी होती है। वे नयी वासनाए यथार्थपरक होती है, इसलिए उनका असत् से सम्बन्धित वासनाओ पर दबाव पड़ता है और वे उनसे अभिभूत हो जाती है।
वासना का ही दूसरा नाम भावना है। शास्त्रीय ज्ञान या शब्द ज्ञान का जो सहारा लिया जाता है, वह वासना है। इसे भावना, जप, धारणा, सस्कार, अनुप्रेक्षा और अर्थचिता भी कहा जाता है और ये सब स्वाध्याय के ही प्रकार है।
जैने साधना पद्धति मे 'भावनायोग' शब्द का व्यवहार हुआ है। भावना ८० / मनोनुशासनम्