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से मन आत्मा या सत्य से युक्त होता है, इसलिए यह योग है। भावना मे ज्ञान और अभ्यास इन दोनों के लिए अवकाश है।
भावनाओं के प्रकार असख्य हो सकते है। उन्हें किसी वर्गीकरण मे नहीं वाधा जा सकता, फिर भी दिशा-निर्देश के रूप मे एक-दो वर्गीकरण प्रस्तुत किए जा सकते है। प्रथम वर्गीकरण मे वारह भावनाओ का उल्लेख
१ अनित्य २. अशरण ३. भव ४ एकत्व ५. अन्यत्व ६. अशीच
७ आस्रव ८. सवर ६. निर्जरा १० धर्म ११ लोक-सस्थान १२. वोधि-दुर्लभता।
अनित्य भावना
जितने सयोग है, उनका अन्त वियोग मे होता है-सयोग विप्रयोगाऽन्ता -फिर भी चिर सम्पर्क के कारण मनुष्य सयोग को शाश्वत मान वैठता है और जव उसका वियोग होता है, तव वह उसके लिए आकुल हो उठता है। यह आकुलता, दुःख और ताप वस्तु के वियोग से नही होता किन्तु उसके सयोग के प्रति शाश्वत की भावना होने से होता है। अनित्य भावना का प्रयोजन चित्त मे (सयोग और वस्तु की नश्वरता के प्रति) अशाश्वतता की भावना को पुष्ट बनाए रखता है। इस भावना का अभ्यासी साधक वियोग को नहीं रोक सकता किन्तु उससे प्रवाहित होने वाली दुःख की धारा को रोक सकता है।
अशरण भावना .
मनुष्य अपूर्ण है। वह अपूर्ण है, इसलिए बाह्य वस्तुओ के द्वारा पूर्ण होने का प्रयत्न करता है। उसे दुःख, अशान्ति, दरिद्रता आदि अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वह उस सघर्प मे विजयी होने के लिए दूसरो का सहारा चाहता है, त्राण और शरण की अपेक्षा रखता है। सामाजिक जीवन मे सहारा, त्राण और शरण मिलती भी है किन्तु यह
मनोनुशासनम् / ८१