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तात्कालिक सत्य है। त्रैकालिक सत्य यह है कि अपने पुरुपार्थ पर आदमी निश्चित रूप से भरोसा कर सकता है, इसलिए वस्तुतः सहारा, त्राण या शरण अपने पुरुषार्थ मे ही है, अन्यत्र नही है। इस अतिम सचाई के आधार पर स्वयं मे स्वय का त्राण खोजना और दूसरो के त्राणदान मे ऐकान्तिक व आत्यन्तिक कल्पना न करना-अशरण भावना है। इस भावना से भावित मनुष्य का कर्तृत्व प्रबल हो उठता है और दूसरो के द्वारा विश्वासघात होने पर उसका धैर्य विचलित नही होता।
भव भावना
इस दुनिया मे सब प्राणी समान नही है और सब मुनष्य भी समान नही है। बुद्धि, वैभव और क्षमता भिन्न-भिन्न है। जिसके पास ये साधन होते है, उसका मन गर्व से भर जाता है और जिसके पास ये नही होते है, उसमे हीन भावना पनपती है। इस दोहरी बीमारी की चिकित्सा भव-भावना है। यह ससार परिवर्तनशील है। इसमे कोई भी व्यक्ति निरन्तर एक स्थिति मे नही रहता। एक जन्म मे एक व्यक्ति अनेक स्थितियों का अनुभव कर लेता है। अनेक जन्मो में तो वह न जाने क्या-क्या अनुभव करता है। जो व्यक्ति इस परिवर्तन की भावना से भावित होता है, उसके मन मे गर्व या हीन भावना की बीमारी पैदा नहीं होती।
एकत्व भावना
आदमी अपने बाहरी वातावरण मे अकेला नही है। वह सामुदायिक जीवन जीता है और सबके बीच मे रहता है किन्तु वह सब बातो मे सामुदायिक नही है। सामुदायिक जीवन के प्रवाह से आने वाली समस्याओं से अपने मन को खाली वही रख सकता है, जिसे व्यावहारिक सम्बन्धो के बीच अपने अस्तित्व की अनुभूति होती है। जिसे अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की अनुभूति होती है, वह बाहरी समस्याओ का सामना करते हुए भी अपने अन्तस् मे समस्या से मुक्त रहता है। बाहर के वातावरण मे समुदाय के बीच मे रहते हुए भी वह अन्तस् मे अकेला रहता है और बाहरी जीवन में व्यस्त रहते हुए भी अन्तस् मे व्यस्तता से मुक्त रहता है।
८२ / मनोनुशासनम्