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अन्यत्व (विवेक) भावना
मनुष्य का सबसे निकट सम्बन्ध शरीर से होता है। शरीर और आत्मा भेदानुभूति नही होती। जो शरीर है वह मै हू, और जो मै हूं वह शरीर है - इस अभेदानुभूति के आधार पर ही मनुष्य के ममत्व का विस्तार होता है। सम्यग् दर्शन का मूल अन्यत्व भावना है। इसे विवेक भावना या भेदज्ञान भी कहा जाता है। शरीर और आत्मा की भिन्नता की भावना पुष्ट होने पर मोह की ग्रन्थि खुल जाती है । सहज ही मन स्थिर हो जाता है । इसीलिए पूज्यपाद ने इस भावना को तत्त्वसग्रह कहा है- जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः इत्यसौ तत्त्वसग्रह |
अशौच भावना
पुद्गलो के बाहरी सस्थान का सौन्दर्य देखकर उनमे मन आसक्त हो जाता है। चमड़ी के भीतर जो है, वह आकर्षक नही है। बाहरी सस्थान के साथ आन्तरिक वस्तुओं का बोध करना - उन्हे साक्षात् देखना अनासक्ति का हेतु है । प्राणी के शरीर मे रहने वाले अशुचि पदार्थ, मृत शरीर की दुर्गन्ध आदि का योग होने पर मूर्च्छा का भाव क्षीण हो जाता है ।
आस्रव - संवर भावना
बाहर से कुछ लेना, उसे संचित करना, उससे प्रभावित होना और उसके अनुरूप अपने आपको ढालना - ये सव आश्रव की प्रक्रियाए है । यही मानसिक चचलता की प्रक्रिया है । सवर की क्रिया इसकी प्रतिपक्ष है । बाहर से कुछ भी लिया नही जाएगा तो उससे प्रभावित होने की परिस्थिति ही उत्पन्न नही होगी । इस स्थिति मे मानसिक स्थिरता अपने आप हो जाती है।
निर्जरा भावना
विजातीय द्रव्य संचित होता है तब शरीर अस्वस्थ बनता है । उसके निकल जाने पर शरीर स्वयं स्वस्थ बन जाता है। बाहरी सचय का निर्जरण होने पर मानसिक चचलता के हेतु अपने आप समाप्त हो जाते है । निर्जरा मनोनुशासनम् / ८३