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का हेतु तपस्या है। जो साधक तपस्या का अर्थ नही जानता, वह ध्यान का मर्म नही जान सकता।
धर्म भावना
धर्म आत्मा का सहज परिणमन है। निमित्त मिलता है, क्रोध उभर आता है किन्तु कोई भी आदमी प्रतिक्षण क्रोध नहीं करता और कर भी नही सकता। क्षमा प्रतिक्षण की जा सकती है क्योकि वह उसका सहज रूप है।
ऋजुता हर क्षण मे हो सकती है किन्तु माया का आचरण हर क्षण मे नही होता। धर्म की भावना का अर्थ है-आत्मा के स्वाभाविक रूप की खोज करना। इसमे इन्द्रिया अन्तर्मुखी हो जाती है और मन अपने अस्तित्व के मूल प्रवाह मे विलीन हो जाता है। लोक-संस्थान भावना
यह लोक विविधताओ की रंगभूमि है। इसमे अनेक सस्थान और अनेक परिणमन है। उन सबमे एकत्व या समत्व की अनुभूति कर घृणा, अभिमान और हीन भावना पर विजय पायी जा सकती है। समत्व की साधना के लिए इस भावना के अभ्यास का बहुत महत्त्व है। बोधिदुर्लभ भावना
बोधि के तीन प्रकार है--ज्ञानबोधि, दर्शनबोधि और चारित्रबोधि। सहजतया मनुष्य का आकर्षण ऐश्वर्य और सुख-सुविधा मे होता है, किन्तु वे ही दु ख के हेतु बनते है, इस स्थिति को मनुष्य भुला देता है। प्रस्तुत भावना में मनुष्य के सम्मुख एक प्रश्न उपस्थित होता है। इस जगत् मे दुर्लभ क्या है ? धन-सम्पदा और सुख-सुविधा वस्तुत. दुर्लभ नही हैं। दुर्लभ है मानसिक शान्ति। वह धन-सम्पदा और सुख-सुविधा से प्राप्त नही होती किन्तु सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दृष्टिकोण और सम्यग्चारित्र के द्वारा प्राप्त होती है।
मन की शान्ति का हेतु बोधि है। कारण प्राप्त होने पर कार्य की सिद्धि सहज हो जाती है। बोधि प्राप्त होने पर मन की शान्ति का
८४ / मनोनुशासनम्