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प्रश्न जटिल नहीं होता।
दूसरे वर्गीकरण में चार भावनाओ का उल्लेख है १. मैत्री २. प्रमोट ३. कारुण्य ४. माध्यस्थ्य।
मैत्री भावना
पैर मे काटा चुभा हुआ है। सर्दी की रात है। उसकी चुभन वरवस ध्यान खींच लेती है। शत्रुता भी एक कांटा है। स्मृति उनके लिए सर्दी की रात है। जव-जव स्मृति आती है, तव-तव मानसिक चुभन प्रखर हो उठती है। दूसरे को शत्रु मानने वाला, जिसको वह शत्रु मानता है, उसका अनिष्ट कर पाता है या नहीं कर पाता किन्तु अपना अनिष्ट अवश्य कर लेता है। मैत्री की भावना का यह प्रवल आधार है। शत्रु की याद आते ही मानसिक प्रसन्नता विपाद मे वटल जाती है। इसलिए समझदार व्यक्ति किसी को शत्रु मानकर अपने मन को कलुषता के दलदल मे कैसे फासना चाहेगा ?
सवके प्रति आत्मीय या पारिवारिक भावना होने पर मन प्रफुल्ल रहता है। उसे किसी से भी भय नहीं होता। शत्रुता और भय, मैत्री और अभय-ये . दो युगल है। जिसका मन भय से भरा होता है, वही दूसरे को शत्रु मानता है। जिसके मन मे भय नहीं होता, वह अनिष्ट करने वाले को अज्ञानी मान सकता है किन्तु शत्रु नही मानता। सव जीवो के हित-चिन्तन का वार-वार अभ्यास करने से मैत्री का सस्कार पुष्ट होता है। प्रमोद भावना
ईर्ष्या उस व्यक्ति के मन मे पैदा होती है जिसे आत्मिक समानता मे विश्वास नहीं होता। जो मानता है कि हर आत्मा समान है, हर आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति है, हर आत्मा को विकास करने का अधिकार है और हर आत्मा उसका विकास कर सकती है, वह व्यक्ति दूसरे का विकास देखकर ईष्यालु नही होता
मनोनुशासनम् / ८५