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________________ मौन चंचलता का बहुत वडा हेतु वाणी है। यदि वाणी नहीं होती तो हमारा दूसरो के साथ सम्पर्क नहीं होता। हम एक-दूसरे से कटे हुए होते। उस कटाव की स्थिति में या पारस्परिक सम्बन्धो के अभाव की स्थिति मे हमारी प्रवृत्तियां सीमित हो जाती है। फलत. हमारी चंचलता मिट जाती है। पूज्यपाद ने लिखा है कि जन-सम्पर्क मे वाणी का प्रयोग होता है। उससे चचलता बढती है। मानसिक स्थिरता चाहने वाला व्यक्ति वचन की स्थिरता नहीं करता तो इसका अर्थ होगा कि उसकी मानसिक स्थिरता की चाह वास्तविक नहीं है। जव भापा गौण होती है और मन प्रधान होता है तब हम चिंतन की स्थिति मे होते है और जव मन गौण होता है और भाषा प्रधान होती है तब हम बोलने की स्थिति मे होते है। जव भापा और मन अलग-अलग हो जाते है तब हम ध्यान की स्थिति में होते है। प्रयोजन के बिना न बोलना वाणी की प्रवृत्ति नही है, फिर भी प्रस्तुत प्रकरण मे उसे मौन कहना इष्ट नहीं है। मौन के पीछे न बोलने का दृढ़ मानसिक संकल्प होना चाहिए। यह सकल्प ही उसकी विशेषता है। मौनकाल मे दोनो होठ मिले हुए रहने चाहिए। उदान वायु पर विजय पाने का यह बहुत महत्त्वपूर्ण उपाय है। बोलने से शक्ति क्षीण होती है। मौन के द्वारा सहज ही उससे बचाव हो जाता है। इस प्रकार मौन अनेक मार्गो से मन की एकाग्रता मे सहायक होता है। १३. इन्द्रिय-कषायनिग्रहो विविक्तवासश्च प्रतिसंलीनता ॥ १४. इन्द्रियाणां विषय-प्रचारनिरोधो विषय-प्राप्तेषु अर्येषु राग-द्वेष-निग्रहश्च इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता॥ १५. क्रोधादीनां उदय-निरोधस्तेषामुदय प्राप्तानां च विफलीकरणं ___कषाय-प्रतिसंलीनता॥ १६. ऐकायोपघातक-तत्त्व-रहितेषु स्थानेषु निवसनं विविक्तवासः॥ १३ पांच इन्द्रिय (स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र), चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निग्रह तथा विविक्तवास (एकान्तवास) को प्रतिसंलीनता (प्रत्याहार) कहा जाता है। इस परिभाषा से प्रतिसलीनता के तीन प्रकार फलित होते है । ७६ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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