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है । उन्हे रोकने का उपाय आसन के द्वारा समुचित मात्रा मे रक्त पहुचाते रहना है। इस प्रकार आध्यात्मिक और शारीरिक दोनो दृष्टियो से आसन मूल्यवान है ।
जैन साधना पद्धति मे आहारविजय, आसनविजय और निद्राविजय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आहार और निद्रा- ये दोनो शरीर की अनिवार्य आवश्यकता है। आहार के विना जैसे शरीर शक्तिशाली और स्वस्थ नही रहता वैसे ही निद्रा के बिना वह स्वस्थ और कार्यक्षम नही रहता । आहार के लिए जैसे मात्रा का प्रश्न है, वैसे ही निद्रा के लिए भी मात्रा का प्रश्न है। आहार के लिए जैसे सामान्य नियम है - जितनी भूख उतना भोजन, वैसे ही निद्रा के लिए भी सामान्य नियम यह है - जितनी जरूरत उतनी नीट । निद्राविजय का अर्थ निद्रा को कम करना नही है किन्तु निद्रा की जरूरत को कम करना है। शरीर मे जितना विप जमा होता है उसे शरीर निकालता है । उसे निकालने की एक प्रक्रिया निद्रा है । प्रवृत्ति जितनी अधिक और उत्तेजित होती है। उतनी ही निद्रा की जरूरत अधिक होती है । वह जितनी कम और शान्त होती है उतनी ही निद्रा की जरूरत कम हो जाती है । निद्रा के लिए ऐसा कोई स्थूल नियम नही बनाया जा सकता कि छह घटा ही सोना है अथवा उससे कम या अधिक सोना है । मानसिक विश्राम, मन की स्थिरता और निर्विकल्पता से नीद की जरूरत अपनेआप कम हो जाती है । हठपूर्वक निद्रा को कम करने का प्रयत्न शरीर और मन - दोनी के लिए हितकर नही होता । नीद लेने के बाद शरीर हल्का, मन प्रसन्न और इन्द्रिया कार्यक्षम हो तो समझना चाहिए कि नीद पर्याप्त ली गई है। कायोत्सर्ग या शिथिलीकरण के समय जो विश्रान्ति होती है, वह कई घटो की नीट का काम कर देती है । वह सूत्र स्मृति मे रखना होगा कि निद्राविजय का अर्थ है निद्रा की आवश्यकता का अल्पीकरण |
१२. वाचां संवरणं मीनम् ॥
१२ वाणी के सवरण को मौन कहा जाता है । यह वचन - गुप्ति है । पहले काय की गुप्ति होती है, फिर वचन की गुप्ति होती है, तत्पश्चात् मन की गुप्ति होती है ।
मनोनुशासनम् / ७५