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इन्द्रियो की सर्वथा प्रवृत्ति न करना अयोग है। उनकी मर्यादा में अधिक प्रवृत्ति करना अतियोग है। ये दोनो इन्द्रिय-दीप उत्पन्न करते हैं । इन्द्रियों की उचित प्रवृत्ति करना योग है।
इन्द्रिया ज्ञान के साधन है। वे विपयों के प्रति व्याप्त होती है, यह उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है । यह शक्य नहीं कि आखे हो और वे रूप या वर्ण को न देखे। यह शक्य नही कि कान हो और वे शब्द न सुने । यह शक्य नही कि घ्राण हो और उसे गन्ध की अनुभूति न हो। यह शक्य नही कि रसना हो और उसे इसकी अनुभूति न हो। यह शक्य नही कि स्पर्शन हो और उसे स्पर्श की अनुभूति न हो । इन्द्रियों के योग का सम्बन्ध हमारे स्वास्थ्य से है जबकि उसके सम्यग् योग का सम्बन्ध हमारी साधना से है। साधक को आख प्राप्त है, इसलिए वह रूप को देखता है पर उसके साथ कल्पनाओं का योग नही करता । स्पर्शन ओर विकार एक नहीं है । इन्द्रियो के द्वारा दृश्य जगत् का ज्ञान करना ऐन्द्रियिक ज्ञान है। यह ज्ञान कल्पना से मिश्रित होकर राग-द्वेप से जुड़ जाता हे तव वह ऐन्द्रिविक विकार हो जाता है । सम्यग् योग का अर्थ है वर्तमान मे प्राप्त विपयो को जानना, उनके साथ अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पनाओ को न जोडना - केवल रूप को देखना, केवल शब्द को सुनना, केवल गन्ध, रस और स्पर्श की अनुभूति करना ।
इन्द्रिय- शुद्धि का दूसरा उपाय प्रतिसलीनता है । इन्द्रिय- शुद्धि की प्रथम भूमि मे विपय और इन्द्रियो के सम्वन्ध की शुद्धि का अभ्यास किया जाता है और द्वितीय भूमिका मे विपयों से सम्पर्क विच्छेद का अभ्यास किया जाता है । आख बन्द कर लेना - यह रूप के साथ चक्षु का सम्वन्ध विच्छेद है। कान बन्द कर लेना - यह शब्द के साथ श्रोत्र का सम्वन्ध-विच्छेद है । नाक को बन्द कर लेना - वह गध के साथ घ्राण का सम्बन्ध-विच्छेद है। आहार नही करना - यह रस के साथ रसना का सम्वन्ध-विच्छेद है। स्पर्श नही करना - यह स्पर्श के साथ स्पर्शन का सम्वन्ध विच्छेद है । इन्द्रियो का वहिर्जगत् में प्रयोग न करना, उन्हे अपने-अपने क्षेत्रो मे ही सीमित रखना प्रतिसलीनता है ।
इन्द्रियो की बाह्यलीनता समाप्त कर उनमे अन्तर्लीनता उत्पन्न करना, यह भी प्रतिसलीनता है । यह आकर्षण के विकर्पण का सिद्धान्त है । अन्तर्
१६ / मनोनुशासनम्