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वहा धूप से बचाने वाली छत वन जाती है और जहा ध्येय को भुलाकर प्रवृत्ति की जाती है, वहां वह मोतिया वन जाती है। छत का हमारे लिए उपयोग है इसलिए हम उसे पसन्द कर सकते है किन्तु मोतिया हमारी ज्योति को आवृत करता है इसलिए उसे पसन्द नही किया जा सकता। हमारी ध्येयनिष्ठा दुर्वल होती है, उस स्थिति मे प्रवृत्ति मोह और आवरण वन जाती है और हमारी ध्येयनिष्ठा प्रवल होती है तव प्रवृत्ति हमारा वचाव करने लग जाती है। इस सारी परिस्थिति मे जो सत्य उभरता है वह है ध्येयनिष्ठा। जिसकी ध्येयनिष्ठा जितनी प्रवल होगी वह उतना ही जीवन की विसगतियो से वच पाएगा। ध्येयनिष्ठा के अभाव में जीवन की विसंगतियो को मिटाने की वात हम सोच सकते है किन्तु उन्हे मिटा नही पाते।
२. इन्द्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहि त्रैकालिकं संज्ञानं मनः॥ ३. स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षुः श्रोत्राणि इन्द्रियाणि ।।
२. मन संज्ञान का एक स्तर है। उसकी व्याख्या तीन विशेपणो से की जाती है(क) वह इन्द्रियो के द्वारा गृहीत विपयो मे प्रवृत्त होता है, इसलिए
इन्द्रिय-सापेक्ष है। (ख) वह शब्द, रूप आदि सव विपयो को जानता है, इसलिए
सर्वार्थग्राही है। (ग) वह भूत, भविष्य और वर्तमान तीनो का सकलनात्मक ज्ञान
करता है, इसलिए त्रैकालिक है। ३. इन्द्रिया पाच है
१ स्पर्शन २. रसन ३. घ्राण ४. चक्षु ५ श्रोत्र
इन्द्रिय और मन चैतन्य की दो भूमिकाए है-विकसित और अविकसित। विकास का
मनोनुशासनम् । ३