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सर्वाधिक निम्नस्तर एकेन्द्रिय मे होता है-उसके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय का विकास होता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि जीवो के चैतन्य का क्रमिक विकास होता है। द्वीन्द्रिय को दो इन्द्रिय स्पर्शन और रसन का ज्ञान प्राप्त होता है। त्रीन्द्रिय के घ्राण, चतुरिन्द्रिय के चक्षु और पचेन्द्रिय के श्रोत्र विकसित हो जाते है। इन्द्रिय विकास चैतन्य का पहला स्तर है। चैतन्य का दूसरा स्तर है-मानसिक विकास। वह केवल पचेन्द्रिय जीवो को ही प्राप्त होता है।
मनुष्य पचेन्द्रिय है और मानसिक विकास भी उसे प्राप्त है। यद्यपि इन्द्रिय और मन दोनो चैतन्य के विकास है, फिर भी दोनो की विकास-मात्रा मे बहुत तारतम्य है, इन्द्रियां केवल वर्तमान को ही जानती है। मन भूत, भविष्य और वर्तमान तीनो को जानता है। इन्द्रियो मे आलोचनात्मक ज्ञान की शक्ति नही है। मन मे आलोचना की क्षमता है। वह इन्द्रियो द्वारा गृहीत विपयो का ज्ञान करता है और स्वतत्र चितन भी।
सज्ञान दो प्रकार के होते है-तात्कालिक और त्रैकालिक । तात्कालिक सज्ञान चीटी जैसे क्षुद्र प्राणियो मे भी होता है। वे इप्ट की प्राप्ति के लिए प्रवृत्त और अनिष्ट से वचने के लिए निवृत्त होते है किन्तु वे भूत और भविष्य का सकलनात्मक सज्ञान नही कर सकते। उनमे स्मृति और कल्पना का विकास नही होता। त्रैकालिक सज्ञान मे स्मृति और कल्पना का विकास होता है तथा उसमे भूत और भविष्य के सकलन की क्षमता होती है। इसलिए मन को दीर्घकालिक सज्ञान भी कहा जाता है।
प्रश्न-क्या मन ज्ञानात्मक है ?
उत्तर-भाव मन चैतन्य के विकास का एक स्तर है, इसीलिए वह ज्ञानात्मक है, किन्तु उसका कार्य स्नायुमण्डल, मस्तिष्क और चितन-योग्य पुद्गलो की सहायता से होता है, इसलिए वह पौद्गलिक भी है। हमारी शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की क्रियाए स्नायुमण्डल के द्वारा सचालित व नियत्रित होती है। मस्तिष्क के दो भाग है
१. वृहन्मस्तिष्क २ लघु मस्तिष्क ज्ञानवाही स्नायु वृहन्मस्तिष्क तक अपना सन्देश पहुचाते है और
४ / मनोनुशासनम