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६. एकाग्रता
प्रेक्षा से अप्रमाद (जागरूक भाव) आता है। जैसे-जैसे अप्रमाद वढता है, वैसे-वैसे प्रेक्षा की सघनता वढती है। हमारी सफलता एकाग्रता पर निर्भर है। अप्रमाद या जागरूक भाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। शुद्ध उपयोग-केवल जानना और देखना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। किन्तु इनका महत्त्व तभी सिद्ध हो सकता है जव ये लबे समय तक निरन्तर चले। देखने और जानने की क्रिया में बार-बार व्यवधान न आए, चित्त उस क्रिया मे प्रगाढ और निष्प्रकम्प हो जाए। अनुवस्थित, अव्यक्त और मृदुचित्त ध्यान की अवस्था का निर्माण नही कर सकता।' पचास मिनट तक एक आलबन पर चित्त की प्रगाढ स्थिरता का अभ्यास होना चाहिए। यह सफलता का बहुत बडा रहस्य है। इस अवधि के वाद ध्यान की धारा रूपान्तरित हो जाती है। लबे समय तक ध्यान करने वाला अपने प्रयत्न . से उस धारा को नये रूप मे पकडकर उसे और प्रलब बना देता है।
१ कायोत्सर्ग शतक, गाथा ३४
गाढालवणलग्ग, चित्त वुत्त निरेअण झाण।
सेस न होई झाण, मउअमवत्त भमत च॥ २ ध्यानशतक, गाथा ३
अतोमुत्तमेत्त चित्तावत्थाणमेगवत्युम्मि।
१६२ / मनोनुशासनम्