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इसी क्रम का नाम ससार है । परमाणु-स्कध परिवर्तित होते रहते है । एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था मे चले जाते है । जीव भी वदलते रहते है। वे कभी जन्म लेते है और कभी मरते है । वे कभी मनुष्य होते है और कभी पशु । एक जीवन में भी अनेक अवस्थाए होती है । इस समूचे परिवर्तन-चक्र का अनुचिन्तन साधक को मुक्ति की ओर ले जाता है ।
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आत्मा का मौलिक स्वरूप चेतना है । उसके दो उपयोग है - देखना और जानना । हमारी चेतना शुद्ध स्वरूप मे हमे उपलब्ध नही है, इसलिए हमारा दर्शन और ज्ञान निरुद्ध है, आवृत्त है । उस पर एक परदा पडा हुआ है। उसे दर्शनावरण और ज्ञानावरण कहा जाता है। वह आवरण अपने ही मोह के द्वारा डाला गया है । हम केवल जानते नही है और केवल देखते नहीं है । जानने-देखने के साथ-साथ प्रियता या अप्रियता का भाव बनता है । वह राग या द्वेष को उत्तेजित करता है । राग और द्वेप मोह को उत्पन्न करते है । मोह ज्ञान और दर्शन को निरुद्ध करता है । यह चक्र चलता रहता है । उस चक्र को तोडने का एक ही उपाय है और वह है ज्ञाताभाव या द्रष्टाभाव, केवल जानना और केवल देखना । जो केवल जानता - देखता है, वह अपने अस्तित्व का उपयोग करता है । जो जानने-देखने के साथ प्रियता - अप्रियता का भाव उत्पन्न करता है, वह अपने अस्तित्व से हटकर मूर्च्छा मे चला जाता है । कुछ लोग मूर्च्छा को तोडने मे स्वय जागृत हो जाते है । जो स्वय जागृत नही होते उन्हे श्रद्धा के बल पर जागृत करने का प्रयत्न किया जाता है । भगवान् महावीर ने कहा - 'हे अद्रष्टा । तुम्हारा दर्शन तुम्हारे ही मोह के द्वारा निरुद्ध है, इसलिए तुम सत्य को नही देख पा रहे हो। तुम सत्य को नही देख पा रहे हो, इसलिए तुम उस पर श्रद्धा करो, जो द्रष्टा द्वारा तुम्हे वताया जा रहा है ।" अनुप्रेक्षा का आधार द्रष्टा के द्वारा प्रदत्त बोध है। उसका कार्य है - अनुचिन्तन करते-करते उस बोध का प्रत्यक्षीकरण और चित्त का
रूपान्तरण ।
१ सूयगडो, १ / २ / ६५
अदक्खुव ' दक्खुवाहिय, सद्दहसू अदक्खुदसणा । हंदि हु सुणिरुद्धदसणे, मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा ।।
मनोनुशासनम् / १६१