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वाला उसके भीतर होने वाले विभिन्न स्रावो को देखने लग जाता है।'
शरीर-दर्शन के अभ्यास से शरीर मे घटित होने वाली अवस्थाएं स्पष्ट होने लग जाती है । भगवान् महावीर ने कहा- 'तुम इस शरीर को देखो | यह पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही छूट जाएगा । विनाश और विध्वस इसका स्वभाव है। यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाए होती है।" शरीर की अनित्यता के अनुचिन्तन से शरीर के प्रति होने वाली गहन आसक्ति से मुक्ति पायी जा सकती है । शरीर की आसक्ति ही सव आसक्तियो का मूल है। उसके टूट जाने पर अन्य पदार्थो मे होने वाली आसक्तिया अपने आप टूटने लग जाती है ।
अशरण अनुप्रेक्षा
जो अपने अस्तित्व को नही जानता, वह कही भी सुरक्षित नही हो सकता । धन, पदार्थ और परिवार - ये सब अस्तित्व से भिन्न है । जो भिन्न है, वह कभी भी त्राण नही दे सकता । ३
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भगवान् महावीर ने कहा- अशरण को शरण और शरण को अशरण मानने वाला भटक जाता है । अपनी सुरक्षा अपने अस्तित्व मे है । स्वय की शरण मे आना ही अशरण अनुप्रेक्षा का मूल मर्म है।
संसार अनुप्रेक्षा
कोई भी द्रव्य उत्पाद, व्यय और धौव्य के चक्र से मुक्त नही है । जिसका अस्तित्व है, जो ध्रुव है, वह उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। फिर उत्पन्न होता है और फिर नष्ट होता है, फिर उत्पन्न होता है और फिर नष्ट होता है । यह उत्पाद और विनाश का क्रम चलता रहता है । 9 आयारो, २/१३०
अतो अतो देहतराणि पासति पुढोवि सवताइ ।
२ आयारो, ५ / २६
से पुव्व पेय पच्छा पेय भेउरधम्म, विद्धसणधम्म, अधुव अणितिय, असासय, चयावचइय, विपरिणामधम्म, पासह एय रूव ।
३ आयारो, २/८
नाल ते तव ताणाए वा, सरणाए वा । तुम पि तेसि नाल ताणाए वा, सारणाए वा ।
१६० / मनोनुशासनम्