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विविध अनुभवो में चित्त का कही लगाव न हो-इस दृष्टि से अनुप्रेक्षा के अभ्यास का बहुत महत्त्व है। धर्म्यध्यान के पश्चात् चार अनुप्रेक्षाओ का अभ्यास किया जाता है ?
१. एकत्व अनुप्रेक्षा २. अनित्य अनुप्रेक्षा ३. अशरण अनुप्रेक्षा
४ ससार अनुप्रेक्षा। एकत्व अनुप्रेक्षा
आत्मा एक है और अनन्त है। ये दोनो सत्य स्वीकृत है। प्रत्येक आत्मा अपने आप मे अखण्ड और परिपूर्ण है। इस दृष्टि से आत्मा एक है। अपनी आत्मा से भिन्न अनन्त आत्माओ का अस्तित्व है, इसलिए आत्माए अनन्त है। प्रत्येक व्यक्ति अनन्त आत्माओ के मध्य जीता है, समुदाय के मध्य जीता है। यह सामुदायिक जीवन की अनुभूति ही राग और द्वेप उत्पन्न करती है। इसमे कोई सन्देह नही कि व्यक्ति विभिन्न प्रभावो से सक्रान्त होता है और उन प्रभावो से वह बच भी नही सकता और वह इसलिए नही वच सकता कि उन प्रभावो को सक्रियता से ग्रहण करता है। उनसे बचने का एक ही उपाय है और वह । है अक्रियता की अवस्था का निर्माण। ध्यान से अक्रियता की अवस्था का निर्माण होता है। समुदाय मे रहते हुए अकेलेपन का अनुभव करने से भी इस अवस्था का निर्माण होता है। 'मै अकेला हू, शेष सब सयोग है।' सयोगो को अपना अस्तित्व मानना सक्रियता है। उन्हे अपने-अपने अस्तित्व से भिन्न देखना, अनुभव करना अक्रियता है। इस एकत्व अनप्रेक्षा के लम्बे (छह मास के) अभ्यास से बाह्य पदार्थो के प्रति होने वाली अपनत्व की मूर्छा को तोडा जा सकता है। यह विवेक या भेदज्ञान का प्रयोग है। अनित्य अनुप्रेक्षा
शरीर के यथाभूत स्वभाव और उसकी क्रियाओ का निरीक्षण करने
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ठाण, ४/६८।
मनोनुशासनम् / १८६