________________
मास तक खाए बिना रह जाता है।
भय और नीद पर विजय पाने के लिए पाच अभ्यासक्रम बतलाए गए है-रात्रि के समय उपाश्रय मे कायोत्सर्ग करना। उसके सध जाने पर उपाश्रय के आस-पास बाहरी भाग मे कायोत्सर्ग करना। वहा अभय प्राप्त हो जाने पर चौराहे मे कायोत्सर्ग करना। फिर सूने घर मे और श्मशान मे। इस प्रकार क्रमिक अभ्यास से भय और नीद-दोनो पर विजय प्राप्त हो जाती है।
प्राण, मन और वाणी-तीनो मे सामरस्य या सामजस्य उत्पन्न करने पर चित्त की चचलता या विषमता क्षीण हो जाती है। सूत्र भावना के द्वारा साधक इसी सामरस्य का अभ्यास करता है। उच्चारण और काल की मात्रा इतनी सध जानी चाहिए कि उच्चारण के द्वारा काल को और काल के द्वारा उच्चारण को मापा जा सके। कायोत्सर्ग या ध्यान मे काल का ज्ञान उच्चारण और श्वास के द्वारा ही किया जाता है। एक श्वास-प्रश्वास मे श्लोक के एक चरण का उच्चारण किया जाए तो एक मिनट मे बारह चरण उच्चारित होते है। इसका अर्थ हुआ एक मिनट मे बारह श्वास-प्रश्वास लिये जाते है। अभ्यास की परिपक्वता होने पर बारह चरणो के उच्चारण का अर्थ होता है-बारह श्वास-प्रश्वास और बारह श्वास-प्रश्वासो का अर्थ होता है-एक मिनट । इस प्रकार उच्चारण, श्वास-प्रश्वास और समय-तीनो की दूरी समाप्त होकर वे एकरूप हो जाते है। इस प्रक्रिया मे चिरकाल के बाद श्वास की गति मन्द हो जाती है। एक मिनट मे आने वाले सोलह-सत्रह श्वास घटकर पाच-सात रह जाते है। जिस प्रकार श्वास की गति मन्द होगी, उसी अनुपात से उच्चारण की सख्या भी कम हो जाएगी। इस साधना की अतिम परिणति प्राणलब्धि के रूप में बदल जाती है। प्राण-लब्धि-सम्पन्न साधक मानस-चक्षु से असीम ज्ञान का साक्षात् कर लेता है। __आसक्ति द्वैत मे पैदा होती है। अद्वैत की भावना पुष्ट होने पर वह विलीन हो जाती है। उपनिषद् का स्वर है-वहा क्या मोह और क्या शोक होगा जो एकत्व को देखता है
तत्र को मोह. क. शोक एकत्वमनुपश्यत । एकत्व की भावना का दृढ अभ्यास करने पर शरीर, उपकरण आदि
१५४ / मनोनुशासनम्