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पर होने वाली आसक्ति क्षीण हो जाती है। सयोग हमारी व्यावहारिक सचाई है। हम उसका अतिक्रमण नही कर सकते किन्तु इस वास्तविकता को भी नहीं भुला सकते कि अन्तत. आत्मा उन सबसे भिन्न है। इस भेदज्ञान की अनुभूति को पुष्ट कर साधक देह मे रहते हुए भी देह के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
बल की भावना से साधना की यात्रा मे आने वाले कष्टो को सहन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। इन पांच भावनाओ के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुच सकते है कि साधक वही व्यक्ति हो सकता है जो तपस्वी है, पराक्रमी है, ज्ञानी है, जिसे भेदज्ञान का दृढ अभ्यास है और जो बलवान् है। ये भावनाए कुछ लोगो मे-जिनका शारीरिक सहनन सुदृढ और मनोबल विकसित होता है-अधिक जागृत होती है। ___कुछ लोगो की धारणा है कि ये भावनाएं पुराने जमाने मे ही हो सकती थी, आज नहीं हो सकती। किन्तु यह धारणा निराशा को जन्म देती है। आज भी शक्ति के अनुसार ये भावनाएं हो सकती है। यदि हम यह मानकर बैठ जाए तो हमारे सामने कुछ करने का अवकाश ही नही रहता। यदि हम इनकी सभावना को स्वीकार करते है तो अवश्य ह कुछ न कुछ आगे बढते है।
मनोनुशासनम् / १५५