________________
है। प्रतिसलीनता का अर्थ है-अपने आप मे लीन होना। इन्द्रिया सहजतया बाहर दौडती है, उन्हे अन्तर्मुखी बनाना प्रतिसलीनता है। उसकी प्रक्रिया यह है___कोई आकार सामने आए तो उसकी उपेक्षा कर भीतर में देखा जाए, वैसे ही भीतर से सुना जाए, सूंघा जाए, स्वाद लिया जाए और स्पर्श किया जाए। प्रतिसलीनता के लिए कुम्भक की आवश्यकता होती है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है-दाये नथुने से श्वास भरे। कुछ देर रोककर अन्त कुम्भक करे। फिर बाये नथुने से श्वास को बाहर निकाल दे। कुछ देर बाह्यकुम्भक करे। इस प्रकार एक बार कुम्भक होता है। प्रतिदिन बारह-तेरह बार इसका अभ्यास करना चाहिए। __वीर्य की उत्पत्ति समान वायु से होती है। उसका स्थान नाभि है। इसलिए कुम्भक के साथ नाभि पर ध्यान करे। पूरक करते समय सकल्प करे कि वीर्य नाडियो द्वारा मस्तिष्क मे जा रहा है। सकल्प मे ऐसी दृढता लाए कि अपनी कल्पना के साथ वीर्य ऊपर चढता दिखाई देने लगे। चाप मे भी सहस्रार-चक्र पर ध्यान कर सकल्प करे कि नीचे खाली हो रहा है
और ऊपर भर रहा है। वीर्य नीचे से ऊपर जा रहा है। ऐसा करने से वीर्य का चाप वीर्याशय पर नही पडेगा। फलत उसके चाप से होने वाली मानसिक उत्तेजना से सहज ही बचाव हो जाएगा। इस विषय मे यौन-शास्त्रियो के अभिमत भी मननीय है।
विज्ञानविशारद स्कॉट हाल का मत है-अण्ड और डिम्ब ग्रन्थियो के अन्त स्राव जब रक्त के साथ मिलकर शरीर के विभिन्न अंगो मे प्रवाहित होते है तो वे युवक और युवती के सर्वागीण विकास मे जादू की तरह नव-जीवन का प्रभाव छोडते है। ___ हेलेनाराइट ने इसके लिए बड़ा उपयोगी मार्ग बतलाया है-आत्मविकास के लिए कोई एक कार्य अपना लेना चाहिए और एकाग्रचित्त से दिन मे कई वार यह सोचना चाहिए कि जननेन्द्रिय मे केन्द्रिय प्राणशक्ति सारे स्नायुमण्डल मे प्रवाहित होकर अंग-प्रत्यग को पुष्ट कर रही है। थोडे समय मे ही इस मानसिक सूचना से तन और मन नये चैतन्य से स्फूर्त एव प्रफुल्ल हो उठेगे।
इन साधनो के अतिरिक्त शास्त्रो का अध्ययन, मनन, चितन, व्युत्सर्ग
१४० / मनोनुशासनम्