________________
उत्तराध्ययन में कहा गया है - ' वभचेरे संका वा कखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा भेय वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालिय वा रोगायक हवेज्जा, कंवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा ।'
शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है, भेद होता है, उन्माद होता है, दीर्घकालिक रोग और आतंक भी हो जाता है तथा केवलि - प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । ब्रह्मचर्य की साधना के लिए कुछ एक साधनों की सूचना दी जाती है । उनका अभ्यास किया जाए तो वह निश्चित परिणाम लाएगा। इनमे पहला साधन वीर्य स्तम्भ प्राणायाम है । इसका दूसरा नाम उर्ध्वाकर्षण प्राणायाम भी है। सिद्धासन मे वैठकर पूर्णरूप से रेचन करे। रेचनकाल में चिन्तन करे, मेरा वीर्य रक्त के साथ मिलकर समूचे शरीर में व्याप्त हो रहा है। फिर पूरक करें - जालन्धरवन्ध और मूलवन्ध करे। पूरककाल मे पेट को सिकोडे और फुलाएं। सिकोडने और फुलाने की क्रिया को पांच-सात पूरको मे सौ वार दोहराएं ।
दूसरा ध्यान है। तीसरा अल्पकालीन कुम्भक है। चौथा प्रतिसलीनता
है |
इन्द्रिया चंचल होती है, पर वह उनकी स्वतंत्र प्रवृत्ति नही है । मन से प्रेरित होकर ही वे चचल वनती है । मन जव स्थिर और शान्त होता है, तव वे अपने आप स्थिर और शान्त हो जाती है । मन अन्तर्मुखी वनता है, तब इन्द्रिया अन्तर्मुखी हो जाती है। महर्षि पतंजलि ने इसी आशय से लिखा है
स्वविपयासम्प्रयोगे चित्तस्यस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । - पातंजल योगदर्शन - साधनपाद, ५४ अपने विषयो के असम्प्रयोग मे चित्त के स्वरूप का अनुकरण जैसा करना इन्द्रियों का प्रत्याहारे कहलाता है । प्रत्याहार के स्थान पर जैन आगमों मे प्रतिसलीनता का उल्लेख है । औपपातिक सूत्र मे इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पांच प्रकार बतलाये गए है ।
इन्द्रिय प्रतिसलीनता के दो मार्ग है- विषय - प्रचार का निरोध और राग-द्वेप निग्रह | आखो से न देखे, यह विपय-प्रचार का निरोध है । विपय के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाए, वहां राग-द्वेष न करना, राग-द्वेप निग्रह
मनोनुशासनम् / १३६