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धातुओ का सार है। शरीर मे अनेक नाडिया है। उनमे एक काम-वाहिनी नाडी है। उसका स्थान पैर के अगूठे से लेकर मस्तिष्क के पिछले भाग तक है। काम-वासना को मिटाने के लिए जो आसन किए जाते है, उन आसनो से इसी नाडी पर नियत्रण किया जाता है। खाने से वीर्य बनता है। वह रक्त के साथ भी रहता है और वीर्याशय मे भी जाता है। वीर्याशय मे अधिक वीर्य जाने से अधिक उत्तेजना होती है और काम-वासना भी अधिक जागती है। ब्रह्मचारी के लिए यह एक कठिनाई है कि वह जीते-जी खाना नही छोड सकता। जो खाता है, उसका रस आदि भी वनता है, वीर्य भी बनता है। वह अण्डकोश मे जाकर सगृहीत भी होता है और वह वीर्याशय मे भी जाता है। योगियो ने इस समस्या पर विचार किया कि इस परिस्थिति को विवशता ही माना जाए या इस पर नियंत्रण पाने का कोई उपाय ढूढा जाए ? उन्होने स्पष्ट अनुभव किया-वीर्य केवल वीर्याशय मे जाएगा तो पीछे से चाप पड़ने से आगे का वीर्य बाहर निकलेगा, फिर दूसरा आएगा और वह भी खाली होगा। खाली होना
और भरना यही क्रम रहेगा तो शरीर के अन्य तत्त्वो को पोषण नही मिलेगा। इसलिए उन्होने वीर्य को मार्गान्तरित करने की पद्धति खोज निकाली। मार्गान्तरण के लिए ऊर्ध्वाकर्पण की साधना का विकास किया। उनका प्रयत्न रहा कि वीर्य वीर्याशय मे कम जाए और ऊपर सहस्रार-चक्र मे अधिक जाए। इस प्रक्रिया मे वे सफल हुए। वीर्य को ऊर्ध्व मे ले जाने से वे ऊध्वरेता बन गए।
वीर्याशय पर चाप पडने का एक कारण आहार है। ब्रह्मचर्य के लिए आहार का विवेक अत्यन्त आवश्यक है। अतिमात्र आहार और प्रणीत आहार दोनो वर्जनीय है। गरिप्ठ आहार नही पचता इसलिए वह कब्ज करता है। मलावरोध होने से कुवासना जागती है और वीर्य का क्षय होता है, इसलिए पेट भारी रहे उतना मत खाओ और प्रणीत आहार मत करो। सतुलित आहार करो, जिससे पेट साफ रहे। खाना जितना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक आवश्यक है मल-शुद्धि । मल के अवरोध से वायु वनता है। वायु जितना अधिक वनेगा उतना ही अहित होगा। वायु-विकार से अधिक वची । वीर्य को जव अधिक चाप होता है, तब ब्रह्मचर्य के प्रति सन्देह उत्पन्न हो जाता है।
१३८ / मनोनुशासनम्