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सत्य पक्ष है।
अहिसा से अपनी मर्यादा का विवेक जागृत होता है, इसलिए अहिसक व्यक्ति दूसरो के स्वत्व का अपहरण नहीं करता, यही उसका अचौर्य पक्ष
अहिसक व्यक्ति अपने इन्द्रिय और मन पर अधिकार स्थापित करता है, यही उसका ब्रह्मचर्य पक्ष है।
अहिसक व्यक्ति आत्मलीन रहता है। वह बाह्य वस्तुओ मे आसक्त नहीं होता, यही उसका अपरिग्रह पक्ष है।
अहिसा, सत्य और अपरिग्रह का आध्यात्मिक मूल्य असीम होता है। ब्रह्मचर्य दो भागो मे विभक्त हे
१. संकल्पसिद्ध ब्रह्मचर्य २. सिद्ध ब्रह्मचर्य।
सिद्ध ब्रह्मचर्य की भूमिका तक पहुचना हमारा लक्ष्य है। शास्त्रो मे 'घोरवंभयारी' शब्द आता है। वह एक विशेप प्रकार की लब्धि (योगज शक्ति) है। वह दीर्घकालीन साधना से उपलब्ध होती है। राजवार्तिक के अनुसार जिसका वीर्य स्वप्न में भी स्खलित न हो, वह घोर ब्रह्मचारी है। जिसका मन स्वप्न में भी अणुमात्र विचलित नही होता, उसे घोर ब्रह्मचर्य की लब्धि प्राप्त होती है। शुभ सकल्पो और साधनो के द्वारा इस भूमिका तक पहुंचा जा सकता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है-मैथुन-विरति या सर्वेन्द्रियोपरम । असत्य, चोरी आदि का सम्बन्ध मुख्यत मानसिक भूमिका से है। ब्रह्मचर्य दैहिक और मानसिक टोनो भूमिकाओ से सम्बन्धित है। अत. उसकी पालना के लिए शरीर-शास्त्रीय ज्ञान भी आवश्यक है। उसके अभाव मे ब्रह्मचर्य को समझने मे भी कठिनाई होती है।
अब्रह्मचर्य के दो कारण है १ मोह २ शारीरिक परिस्थिति।
व्यक्ति जो कुछ खाता है, उसके शरीर मे प्रक्रिया चलती है। उसकी पहली परिणति रस है। वह शोणित आदि धातुओ मे परिणत होता हुआ सातवी भूमिका मे वीर्य वनता है। उसके बाद वह ओज के रूप मे शरीर मे व्याप्त होता है। ओज केवल वीर्य का ही सार नही है। वह सव
मनोनुशासनम् । १३७