________________
१८ कूर्मनाइयां तद्धारणेन रोगजराविनाशः॥ १६ कण्ठकूपस्य निम्नभागे स्थिता कुण्डलिसाकारा नाडी कूर्मनाडी।। २० कण्ठकूपे तद्धारणेन क्षुत्तृपाजयः॥ २१ जिहाने तद्धारणेन रसज्ञानम्।। २२ नासाग्रे तद्धारणेन गन्धज्ञानम् ।। २३ चक्षुषोस्तद्धारणेन रूपज्ञानम्॥ २४ कपाले तद्धारणेन क्रोधोपशमः॥ २५ ब्रह्मरन्ध्रे तद्धारणेन अदृश्यदर्शनम्॥
६ प्राणवायु को जीतने से जठराग्नि प्रवल होती है। वायु जीत
लिया जाता है और शरीर मे हल्कापन आ जाता है। १०. अपान और समान वायु को जीतने से ये फल प्राप्त होते है
१. व्रणरोहण-घाव मिटाना। २. अस्थि-सधान-हड्डी जुड़ जाना। ३ जठराग्नि की प्रवलता। ४ मल और मत्र की अल्पता।
५. व्याधि पर विजय। ११ उदान वायु पर विजय प्राप्त करने पर कीचड़, काटे आदि वाधक
नही बनते। लघुता प्राप्त होने से फसना, चुभना आदि नहीं
होते। १२ ताप और पीडा का अभाव तथा नीरोगता-ये व्यान वायु की
विजय के कार्य या फल है। १३ बाये स्वर को चन्द्रनाडी तथा दाये स्वर को सूर्यनाडी कहा जाता
है। चन्द्रनाडी के पवन का आकर्षण कर उसे पैरो के अगूठे तक ले जाना, क्रमश उसे फिर ऊपर लाना, फिर नीचे ले जाना-इस प्रकार ऊपर-नीचे लाने ले जाने से मन की स्थिरता
प्राप्त होती है। १४ पादागुष्ठ से लिग पर्यन्त वायु को धारण करने से शीघ्र गति
और बल की प्राप्ति होती है। १५ नाभि मे वायु को धारण करने से ज्वर आदि रोग नष्ट होते है।
१६ जठर मे वायु को धारण करने से शरीर की शुद्धि होती है, मल १२८ / मनोनुशासनम्