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अपने वश मे करने के लिए नासान पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। नासाग्र के द्वारा प्राण का आगम और निर्गम होता है। वहा मन को उसी प्रकार नियोजित करना चाहिए जिस प्रकार एक प्रहरी द्वार से जाने-आने वाले लोगो पर ध्यान केन्द्रित किये खडा रहता है। लम्बे समय तक प्राणवायु के आगम और निर्गम पर ध्यान केन्द्रित करने से वह साधक के अधीन हो जाती है। फिर साधक उसे शरीर के जिस भाग में ले जाना चाहता है, या स्थापित करना चाहता है, मन की गति के साथ वह वही चली जाती है या स्थापित होती है। इस प्रकार अन्य वायुओ पर भी ध्यान को केन्द्रित कर उन्हे अपने अधीन किया जा सकता है। प्रत्येक वायु स्वाभाविक ढग से अपना-अपना काम करती है किन्तु ध्यान के द्वारा उनमे विशेषता लायी जा सकती है और उनकी शक्ति का सवर्धन किया जा सकता है। इस कार्य के सम्पादन मे प्राणायाम का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। रेचक के द्वारा उनके दूषित तत्त्वो को बाहर फेक दिया जाता है। पूरक के द्वारा उनकी शक्ति को पुष्ट किया जाता है
और कुम्भक के द्वारा उनकी कार्य-क्षमता को जागृत किया जाता है। साधक सकल्पपूर्वक रेचक, पूरक और कुम्भक कर वायु को अपने अधीन वना लेता है और फिर वह उनके द्वारा इष्ट कार्य का सम्पादन करता है। वायु पर ध्यान केन्द्रित करते समय उसके ध्यान-बीजो का भी आलम्वन लेना चाहिए।
६.जठराग्निप्रावल्यं वायुजयः शरीरलाघवञ्च प्राणस्य लब्धयः॥ १०. व्रणरोहण-अस्थिसन्धान-अग्निप्राबल्य-मलमूत्राल्पता व्याधिजयः अपान
समानयोः॥ ११. पंक-कण्टकवाधाऽभाव उदानस्य। १२ ताप पीड़ाऽभावः आरोगित्वञ्च व्यानस्या। १३ चन्द्रनाड्या वायुमाकृष्य पादाङ्गुष्ठान्तं तन्नयनं क्रमशः पुनरुन्नयन
पुनर्नयनञ्च मनःस्थैर्याय। १४. पादाङ्गुष्ठतो लिड्गपर्यन्तं वायुधारणेन शीघ्रगतिलप्राप्तिश्च॥ १५. नाभौ तद्धारणेन ज्वरादिनाशः। १६ जठरे तद्धारणेन कायशुद्धिः। १७. हृदये तद्धारणेन ज्ञानोपलब्धिः॥
मनोनुशासनम् । १२७