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है। इस क्रिया से अपानवायु वश मे होती है व पेट की बहुत-सी वीमारिया दूर हो जाती है।
३. आपने बहुत वार कुत्ते या विल्ली को अंगडाई लेते देखा होगा। ठीक इसी प्रकार की स्थिति मे हो जाइए। हाथो को सीधा आगे पसारिए। जमीन पर ठोडी या गाल लगे और घुटने अलग करके रखें। कमर को जितना हो सके झुकाए । अव अपान को वाहर करने का प्रयत्न करे। उसके बाद स्वय ही अपान अन्दर आने की कोशिश करेगा। इससे अफारा, सिरदर्द दूर होते है। अपानायाम मे सिर्फ पूरक व रेचक ही करना चाहिए, कुम्भक नहीं। पेट को विल्कुल ढीला छोड देने से वायु वाहर हो जाता है। ___ प्राण, अपान आदि की विधिवत् साधना करने वाला वाह्य और । आन्तरिक दोनो प्रकार की उपलब्धियो से सम्पन्न होता है। सोमदेव सूरि के अनुसार जो व्यक्ति पवन के प्रयोग में निपुण होता है, वह सिद्ध और सर्वज्ञ जैसा हो जाता है
पवनप्रयोगनिपुण. सम्यक् सिद्धो भवेदशेपज्ञ । ७ नासादिषु स्वस्वस्थानेषु रेचक-पूरक-कुम्भकैस्तज्जयः॥ ८. मैं 4 3 रौं लौं तद्ध्यानवीजानि॥ ७ पाचो वायुओ के जो अपने-अपने विचरण-स्थान है, वहा सकल्पपूर्वक
रेचक, पूरक और कुम्भक करने से इन पर विजय प्राप्त होती है। ८ पाचो वायुओ के ध्यान-वीज इस प्रकार है
१. प्राण-यै २ अपान-पै ३ समान-वै ४. उदान-रौ ५ व्यान-लौ
वायु-जय की प्रक्रिया पूर्ववर्ती सूत्रो मे वायु के स्थानो का निर्देश किया गया है। जिस वायु को अपने वश मे करने की अपेक्षा होती है, उस पर मन को केन्द्रित करना आवश्यक होता है। प्राणवायु का मुख्य स्थान नासाग्र है। उसे
१२६ / मनोनुशासनम्