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गाव, जनाकुल घर मे भी किया जा सकता है । उपवन आदि का चुनाव इसलिए किया गया कि उसमे पर्याप्त प्राणवायु प्राप्त हो सके।
स्थल के सम्वन्ध मे कोई निश्चित रेखा नही खींची जा सकती, किन्तु इस विषय मे इतना ही निर्देश किया जा सकता है कि वह स्वच्छ, नीरव, प्रशस्त और प्राणवायु से परिपूर्ण होना चाहिए। स्थल के विषय में एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है । वह यह है कि ध्यान एक निश्चित स्थान मे किया जाए तो उसकी सिद्धि शीघ्र होती है ।
दूसरी बात यह है कि विचार सक्रमणशील होते है । एक मनुष्य के विचारो का दूसरे मनुष्य के विचारो पर असर होता है । बुरे विचारो का सक्रमण न हो, इस दृष्टि से ध्यान-स्थल का एकान्त होना आवश्यक है । ध्यानोचित आसन
ध्यानकाल मे बैठने के आसनो का भी वहुत महत्त्व है । मृत्तिका, शिलाखण्ड और काष्ठ-ये शरीर के तापमान को सन्तुलित और स्थिर वनाए रखते है और विजातीय तत्त्वो के प्रभाव से बचाते है, इसलिए इनका विशेष महत्त्व है । सात्त्विक वस्त्रासन भी ध्यानकाल मे उपयोग में लाये जाते है ।
६. सालम्वन-निरालम्बनभेदाद् ध्यानं द्विधा ॥
१०. पिण्डस्य-पदस्थ-रूपस्थ-रूपातीतभेदादाद्यं चतुर्धा ॥
११ शारीरालम्वि पिण्डस्थम् ॥
१२ शिरो - भ्रू - तालु - ललाट-मुख-नयन - श्रवण - नासाग्र-हृदय-नाभ्यादि शारीरालम्वनानि ॥
१३. धारणालम्वनं च ॥
१४ प्रेक्षा वा ।।
१५ ध्येये चित्तस्य स्थिरबन्धो धारणा ॥
१६ पार्थिवी - आग्नेयी - मारुती - वारुणीति चतुर्धा ॥
१७ स्वाधारभूतानां स्थानानां वृहदाकारस्य वैशद्यस्य च विमर्शः ॥
१८. तत्रस्थस्य निजात्मनः सर्वसामर्थ्योद्भावनं पार्थिवी ॥
१६ नाभिकमलस्य प्रज्वलनेन अशेषदोषदाहचिन्तनमाग्नेयी ॥
२० दग्धमलापनयनाय चिन्तनं मारुती ॥
६८ / मनोनुशासनम्