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२१ महामेघेन तद्भस्मप्रक्षालनाय चिन्तनं वारुणी॥ २२ श्रौतालम्बि पदस्थम्॥ २३ संस्थानालम्बि रूपस्थम्॥ २४. सर्वमलापगतज्योतिर्मयात्मालम्वि रूपातीतम्॥ २५ तन्मयत्वमेवास्य स्वाध्यायाद् वैलक्षण्यम्। ६ ध्यान के दो प्रकार है :
१. सालम्बन-आलम्बन-सहित ।
२ निरालम्वन-आलम्वन-रहित । १०. सालम्बन ध्यान के चार प्रकार है .
१ पिण्डस्थ २. पदस्थ ३ रूपस्थ
४ रूपातीत ११ जिस ध्यान मे शरीर के किसी अवयव का आलम्बन लिया जाता
है, वह पिण्डस्थ कहलाता है। १२ सिर, भ्रू, तालु, ललाट, मुह, नेत्र, कान, नासाग्र, हृदय और
नाभि-ये शारीरिक आलम्बन है। १३. धारणा का आलम्वन लेने वाले ध्यान को भी पिण्डस्थ कहा
जाता है। १४ स्थूल और सूक्ष्म शरीर की सवेदनाओ और क्रियाओ तथा
मानसिक वृत्तियो के दर्शन के अभ्यास को प्रेक्षा कहा जाता है।
यह भी एक प्रकार का पिण्डस्थ ध्यान है। १५ चित्त को किसी एक देश मे सन्निविष्ट करने को धारणा कहा
जाता है। १६ धारणा के चार प्रकार है १. पार्थिवी
२ आग्नेयी ३. मारुती
४ वारुणी १७ आसनस्थित होकर मेरे आधारभूत स्थान (समुद्र, पर्वत आदि)
विशाल और विशद है-ऐसा अनुभव करना चाहिए। १८. फिर उन पर अपने को स्थित मानकर अपने सर्वशक्ति-सम्पन्न
मनोनुशासनम् । ६६