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________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ८७ श्रीविजयने अपनी उक्त टीका श्रीनन्दि गणिकी प्रेरणाको पाकर लिखी है। इधर यह जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति भी एक श्रीनन्दिगुरुके निमित्त लिखी गई है। और इसके कर्ता पद्मनन्दिने अपने शास्त्र गुरुके रूपमें श्रीविजयका नाम खास तौरसे कई बार उल्लेखित किया है। इससे बहुत संभव है कि दोनों श्रीविजय एक हों और दोनों ग्रन्थोंके निमित्तभूत श्रीनन्दि गुरु भी एक ही हों। श्रीविजयने अपने गुरुका नाम बलदेव सूरि, प्रगुरुका चन्द्रनन्दि ( महाकर्म प्रकृत्याचार्य ) सूचित किया है और पद्मनन्दि अपने गुरुका नाम बलनन्दि और प्रगुरुका वीरनन्दि लिख रहे हैं । हो सकता है कि बलदेव और बलनन्दिका व्यक्तित्व भी एक हो, और इस तरह श्रीविजय और पद्मनन्दि गुरुभाई हों। जिनमें श्रीविजय ज्येष्ठ और पद्मनन्दि कनिष्ठ हों और इस तरह पद्मनन्दिने श्रीविजयका उसी तरहसे गुरु रूपमें उल्लेख किया हो जिस तरह कि गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्रने इन्द्रनन्दि आदिका किया है। आगे मुख्तार साहबने लिखा है कि यदि यह कल्पना ठीक हो तो फिर यह देखना चाहिये कि इस ग्रंथ और इसके कर्ता पद्मनंदिका क्या समय ठीक हो सकता है ? चंद्रनन्दिका सबसे पुराना उल्लेख श्रीपुरुषके दानपत्र अथवा नाग मंडल ताम्रपत्र में पाया जाता है जो श्रीपुरके जिनालयके लिये शक संवत् ६९८ (वि० सं० ८३३) में लिखा गया है और जिसमें चंद्रनन्दिके एक शिष्य कुमारनन्दि और कुमारनन्दिके शिष्य कीर्तिनन्दि और कीर्तिनन्दिके शिष्य विमलचंद्रका उल्लेख है और इससे चंद्रनन्दिका समय शक सं० ६३८ से कुछ पहलेका जान पड़ता है । बहुत संभव है कि श्रीविजय इन्हीं चंद्रनन्दिके प्रशिष्य हो । यदि ऐसा है तो श्रीविजयका समय शक सम्बत् ६५८ के लगभग प्रारम्भ होता है। और तब जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति तथा उसके कर्ता पद्मनन्दिका समय शक सं० ६७० अर्थात् वि० सं० ८०५ के आसपास होना चाहिये । उस समय पारियात्र देशके अंतर्गत वारा नगरका स्वामी कोई शक्ति या शांति नामका भूपाल राजा हुआ होगा, जिसका इतिहाससे पता चलाना चाहिये ।' अंतमें मुख्तार सा ने लिखा है कि कुछ भी हो, यह ग्रंथ अपने साहित्यादि परसे काफी प्राचीन मालूम होता है। मुख्तार सा० ने श्रीविजय अपर नाम अपराजित सूरिके साथ पद्मनन्दिके विद्यागुरु श्रीविजयकी एकताको मानकर आगे जो एक रूपताएँ स्थापित की हैं मुख्तार सा० के कथनानुसार ही वे सब कल्पना पर ही आधृत है; क्योंकि जम्बूद्वीप पण्णत्तिके रचयिताने जिसके लिए शास्त्र रचा, उसकी गुरुपरम्परा अलग दी है और अपनी गुरुपरम्परा अलग दी है और उनका परस्परमें कोई सम्बन्ध नहीं बतलाया है। तथा जिस श्रीविजय गुरुके पासमें उन्होंने
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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