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८६ : जेनसाहित्यका इतिहास
जैन भारती भवनसे प्रकाशित पमनन्दि पञ्चविंशतिकाकी प्रस्तावनामें पं० गजाधर लालजीने लिखा है कि पूना लाइब्रेरीकी रिपोर्ट से पता लगा है कि पअनन्दि नामके कई आचार्य हो गये हैं उनमें एक जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके कर्ता हैं । दूसरे पचनन्दिने पञ्चविंशतिका, चरणसार प्राकृत, धर्मरसायन प्राकृत ये तीन ग्रन्थ बनाये हैं। इनके समयादिका कुछ भी पता नहीं लगता। तीसरे कर्णखेट ग्राममें हुए हैं। जिन्होंने सुगन्ध दशमी उद्यापनादि बनाये हैं । चौथे पद्मनन्दि कुण्डपुर निवासी हुए हैं जिन्होंने चूलिका सिद्धान्तकी वृत्ति नामक व्याख्या १२००० श्लोकोंमें बनाई हैं। पांचवें विक्रम सं० १३९५में हुए हैं । छठे पद्मनन्दि भट्टारक नामसे प्रसिद्ध हुए हैं। जिनकी बनाई हुई देवपूजा, रत्नत्रयपूजा पूनाकी लाइब्रेरी में हैं। सातवे विक्रम सं० १३६२में भट्टारक नामसे हुए हैं। इनकी लघु पद्मनन्दि संज्ञा भी है । इनके बनाये हुए यत्याचार, आराधना संग्रह, परमात्मप्रकाशकी टीका, निघंटु ( वैद्यक) श्रावकाचार, कलिकुण्ड पार्श्वनाथविधान, अनन्त कथा आदि ग्रन्थ हैं। ___ इनमें चौथे पद्मनन्दि तो आचार्य कुन्दकुन्द प्रतीत होते हैं। कौण्डकुन्दपुर के निवासी होनेके कारण वे कुन्दकुन्द नामसे ख्यात हुए । इन्द्रनन्दिके श्रु तावतारके अनुसार उन्होंने षट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डों पर परिकर्म नामका ग्रन्थ रचा था और उसका परिमाण बारह हजार श्लोक प्रमाण था। यह पयनन्दि सबसे प्रथम हुए हैं। इनका समय विक्रमकी तीसरी शताब्दीका उत्तराध है। शेष पद्मनन्दियोंकी एकता अथवा भिन्नता चिन्तनीय है ।
पं० गजाधर लालजीने पद्मनन्दि पञ्चविंशतिकाके कर्ता को ही जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिका कर्ता होनेकी संभावना की है। क्योंकि पद्मनन्दि पञ्चविंशतिकामें कर्ता पमनन्दिने कई स्थानों पर अपने गुरु वीरनन्दिका स्मरण किया है तथा उन्होंने इस ग्रन्थमें ऋषभ स्तोत्र तथा जिनेन्द्र स्तोत्रकी रचना प्राकृतमें की है अतः वे प्राकृत भाषाके भी पंडित जान पड़ते हैं।
किन्तु जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके रचयिता पअनन्दिके गुरुका नाम बलनन्दि और गुरुके गुरुका नाम वीरनन्दि था। ऐसी स्थितिमें गुरु बलनन्दिको छोड़ कर गुरुके गुरु वीरनन्दिको ही स्मरण करना उनकी भिन्नताको ही प्रकट करता है। ___ किन्तु श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारका कहना है कि भगवती आराधनाकी विजयोदया टीकाके कर्ता श्रीविजय नामके एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं, जिनका दूसरा नाम अपराजित सूरि है। पं० आशाधरजीने अपनी मूलाराधना दर्पण नामकी टीकामें जगह जगह उन्हें श्रीविजयाचार्यके नामसे उल्लेखित किया है।
१. पु० वा० सू० की प्रस्ता० पृ० ६६-६७ ।