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८८ : जेनसाहित्यका इतिहास शास्त्राध्ययन म्या, उनको दोनोंमेंसे किसीसे भी सम्बद्ध नहीं बतलाया है। यदि बलनन्दि और बलदेव एक ही व्यक्ति होते और श्रीविजय उनके शिष्य होनेके नाते पद्मनन्दिके गुरुभाई होते तो वह श्रीविजय गुरुके साथ अपने इस सम्बन्धका कुछ-न-कुछ निर्देश अवश्य करते, जैसा कि नेमिचन्द्राचार्यने इन्द्रनन्दिके विषयमें किया है । फिर उस समयमें वारा नगरके शक्ति भूपालका भी कोई अस्तित्व कहींसे ज्ञात नहीं होता। उससे प्रेमीजीका अनुमान अधिक समुचित प्रतीत होता है। यद्यपि उस कालमें पद्मनन्दि नामके किसी आचार्यका और उनके द्वारा उल्लिखित आचार्योंका कोई पता नहीं चलता है । किन्तु ज०वी० पण्णत्ति ग्रंथके उद्धरण एक संस्कृत लोकविभागको छोड़कर अन्य किसी ग्रंथमें नहीं मिलते। उद्धरणोंके लिए आकर रूप धवलाटीकामें उसका एक भी उद्धरण नहीं है। फिर उसमें ( ४।१७ ) स्पष्ट रूपसे लोकको दक्षिण-उत्तर सात राजू लिखा है। इसके व्यवस्थापक धवलाटीकाकार वीरसेन स्वयं अपनेको बतलाते हैं। यदि जम्बूद्वीप पण्णत्ति उनके सामने होती तो वह ऐसा नहीं लिखते, प्रमाणरूपसे उसका निर्देश करते । अतः जम्बूद्वीप पण्णत्ति धवलाटीकाके पश्चात् ही लिखी गई होनी चाहिये । प्रेमीजीके प्रमाणानुसार वि०सं०के ग्यारहवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें ज०वी०प० रची गई होगी। इससे वह त्रि०सा के पश्चात् की ठहरती है। जल्द्वी०प०की सबसे प्राचीन उपलब्ध प्रति वि०सं० १५१८की लिखी हुई मिलती है। उसी समयके लगभग रचे गये संस्कृत लोकविभागमें भी उसका उल्लेख है। अतः यह निश्चित है कि उसकी रचना उससे पूर्व हो चुकी थी। संस्कृत लोक विभाग
जैसा कि प्राकृत लोक विभागके सम्बन्धसे इसके विषयमें पहले लिखा गया है यह लोक विभाग संस्कृतके अनुष्टुप श्लोकों में है। यह सर्वनन्दि मुनिके द्वारा रचित प्राकृत लोकविभागकी भाषाका परिवर्तन करके सिंह सूरिके द्वारा रचा गया है। इसमें ग्यारह प्रकरण हैं।
१. पहले जम्बूद्वीप विभागमें जम्बूद्वीपका विस्तार, छह कुलाचल, विदेह, विजय, विजया, मेरु, भद्रशाल आदि वनोंका कथन है।
२. दूसरे लवण समुद्र विभागमें लवण समुद्रका विस्तार, उसके मध्यमें स्थित पाताल, जलकी हानि वृद्धि तथा अन्तर्वीपज मनुष्योंका कथन है।
३. तीसरे मानुष क्षेत्र विभागमें धातकी खण्ड और पुष्करार्घ द्वीपोंका तथा कालोदक समुद्रका वर्णन है।
४. चौथे द्वीप समुद्र विभागमें आदि तथा अन्तके १६, १६ द्वीप समुद्रोंका