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________________ ८४ : जेनसाहित्यका इतिहास रचयिता तथा गुरु परम्परा जं० द्वी० प० के तेरहवें उद्देश के अन्तमें ग्रंथकारने लिखा है कि जिनमुखोद्भूत परमागमके उपदेशक विख्यात श्री विजय गुरु हैं। उनके पासमें जिनागमको सुनकर मैंने यहां कुछ उद्देशोंमें मनुष्य क्षेत्रके अन्तर्गत ४ इष्वाकार, ५ मन्दर शल, ५ शाल्मलिवृक्ष, ५ जंबूवृक्ष, २० यमक पर्वत, २० नाभिगिरि, २० देवारण्य, ३० भोग भूमिया, ३० कुलाचल, ४० दिग्गजपर्वत, ६० विभंग नदियाँ, ७० महा नदियाँ, ३० पद्मद्रहादि, १०० वक्षार पर्वत, १७० वैताढ्य पर्वत, १७० ऋषभ गिरि, १७० राजधानियाँ, १७० षट्खण्ड, ४५० कुण्ड, और २२५० तोरण इत्यादि बहुतसे ज्ञातव्य विषयोंका कथन तथा इनके अतिरिक्त मनुष्य लोकमें अढाई द्वीप, दो समुद्र, आदिका तथा अधोलोक तिर्यग्लोक और ऊवलोकका कथन श्री विजय गुरुके प्रसादसे किया है ( १४६-१५३ गा० )। श्री माघनन्दि गुरु श्रत सागरके पारगामी विख्यात हैं। उनके शिष्य सकलचन्द्र गुरु हुए। उनके शिष्य श्री नन्दि गुरु हुए। उनके निमित्त यह जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति लिखी गई है। तथा एक वीर नन्दि नामक आचार्य हुए है। उनके शिष्य बलनन्दि गुरु हुए । वे सूत्रार्थके मर्मज्ञ थे। उनके शिष्य सिद्धान्तके पारंगत पद्मनन्दि नामक मुनि हुए। श्री विजय गुरुके पासमें अतिविशुद्ध आगमको सुनकर मुनि पद्मनन्दिने इसको संक्षेपसे लिखा । ( १५४-१६४ गा० )। जिनशासन वत्सल शक्ति नामक भूपाल वारा नगरका शासक था। प्रचुर पुष्करणियों व वापियोंसे संयुक्त, भवनोंसे भूषित, अति रमणीय, नानाजनोंसे संकीर्ण, धनधान्यसे व्याप्त, सम्यग्दृष्टि जनोंके समूहसे सहित, मुनिगणसे मण्डित, रम्य और जिन भवनोंसे भूषित पारियात्र देशके अन्तर्गत वारा नगरमें स्थित होकर मैंने इस जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिको संक्षेपमें लिखा है। मुझ अल्पज्ञसे जो आगम विरुद्ध लिखा गया हो उसको विद्वान् मुनि प्रवचन वत्सलतासे शुद्ध कर लें ( गा० १६५-१७० )। उक्त कथनके अनुसार ग्रन्थकारका नाम पद्मनन्दि था। उनके गुरुका नाम बलनन्दि था। और गुरुके गुरुका नाम वीरनन्दि था। ग्रंथकार पद्मनन्दिने शास्त्रका ज्ञान श्री विजय गुरुसे प्राप्त किया था। और इस ग्रन्थकी रचना उन्होंने माघनन्दिके प्रशिष्य तथा सकल चन्द्रके शिष्य श्री नन्दिके लिये की थी। तथा इस ग्रन्थकी रचना वारा नगरमें हुई थी। वारा नगर परियात्र देशमें था और वहाँ शक्ति भूपाल राज्य करते थे। समय विचार ग्रन्थकारने ग्रन्थमें उसके रचनाकालका कोई निर्देश नहीं किया। और न
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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