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________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ८३ वारुणीवर द्वीपके प्रथम वलयमें २८८ बतलाये हैं। ग्रन्थकारने यह कथन किस आधारसे किया है, यह कहना शक्य नहीं है। तत्त्वार्थवातिकके अनुसार भी पुष्करवर समुद्रमें ७२ ४४ = २८८ चन्द्रसूर्य होते हैं। ___ ऐसे ग्रन्थकारसे इस प्रकारको भूलकी आशा भी नहीं की जा सकती। अस्तु । फिर भी यह निर्विवाद है कि ति० प० जम्बूद्वीपपण्णत्तिका एक प्रमुख आधार भूत ग्रन्थ है। इसी तरह मूलाचार ग्रंथके. अन्तिम प्रकरण पर्याप्तिसंग्रहणी की भी कई एक गाथाएँ जम्बू द्वी०प० के उद्देश ११, १२, १३ में ली गई हैं। त्रिलोकसार' की भी कुछ गाथाएँ ज० द्वी०प० के साथ आंशिक रूपसे मेल खाती हैं किन्तु उनमें क्वचित् अर्थभेद भी पाया जाता है। दोनों ग्रंथोंकी कुछ मिलती हुई गाथाएं उपमा प्रमाणसे सम्बद्ध हैं। जिनसे त्रि० सा० गा० ९३ तथा ज० द्वी० ५० १३।३६ वीं गाथा तो पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि ( ३२३८ ) में उद्धृत होनेसे दोनों ग्रंथोंसे प्राचीन है । आगे सत्तमजम्मावीणं सत्तदिणभंतरम्मि गहिदेहिं ।। सण्णटुं सण्णिचिदं भरिदं वालग्गकोडीहिं ॥ ९४ ॥-त्रि० सा० एगाहि वीहि तीहि य उक्कस्सं जाव सत्तरत्ताणं । संणद्धं संणिचिदं भरिदं बालग्गकोडीहिं ॥३७॥ ज० द्वी० ५० १३ । इन गाथाओंका पूर्वार्ध भिन्न है किन्तु उत्तरार्ध समान है। परन्तु श्वे० परम्पराके ज्योतिष्करण्डमें भी यह गाथा ज० द्वी० ५० से बहुत कुछ समानता रखती हुई इस प्रकारसे पाई जाती है एकाहिय-वेहिय-तेहियाण उक्कोससत्तरताणं । सम्मटुं सन्निचियं भरियं बालग्गकोडीणं ।। ७९ ॥ एक गाथा ऐसी भी है जो त्रि०सा० (९५) में और ज०वी०प० (१३॥३५) में समानताको लिये हुए पाई जाती है। अन्य भी कुछ गाथाएं पाठभेद और मान्यता भेदको लिये दोनों ग्रन्थों में समान रूपसे मिलती हैं। और उस परसे पह सम्भावना की जाती है कि एकने दूसरेको देखा हो। १. ज०प० ११११३७-१३८ तथा मूलाचा० १२१७५-७६ । जं० १० ११॥ १३९, १४०, १४१ तथा मूला० १२।२१, १०९-११० आदि । २. त्रि० सा० ९६ जं० प० ४।३४ । त्रि० सा० ९५, जं० ५० १३॥३५ । त्रि० सा० ९३, जं० १० १३॥३६ । त्रि० सा० ९४, जं० १० १३१३७ । त्रि. सा० ९९-१०२ ० ५० १३३३८-४१ आदि ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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