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________________ ८२ : जैनसाहित्यका इतिहास की कोई चर्चा नहीं है । केवल उर्ध्वरेणुके स्थानमें त्रुटिरेणु है। किन्तु जं० द्वी० प० में त्रुटिरेणुके स्थानमें व्यवहार परमाणु है। इस तरह उक्त दो गाथाओंको अपना कर भी जं. द्वी०प० के कर्ताने वर्णनमें ति० ५० और तत्त्वार्थ वार्तिक का ही अनुसरण किया है। केवल त्रुटिरेणुके स्थानमें व्यवहार परमाणु संज्ञाको स्थान दिया है । क्यों ऐसा किया गया है यह नहीं कहा जा सकता। तिलोयपण्णत्ति, तत्त्वार्थवार्तिक, वृहत्संग्रहणी, हरिवंश पुराण, तथा जम्बूद्वीप पण्णत्ति, इन सभी ग्रन्थोंमें जम्बूद्वीपमें २, लवण समुद्रमें ४, धातकी खण्डमें १२, कालोदधिमें ४२ और पुष्करार्धमें ७२ चन्द्रमा और उतने ही सूर्य बतलाये है। किन्तु मनुष्यलोकसे बाहर चन्द्रसूर्योकी संख्याके प्रमाणमें मतभेद है । अकलंक देवने तत्त्वार्थवातिकमें' वाह्य पुष्कराधमें भी ७२ चन्द्र सूर्य बतलाये हैं। उससे चौगुने पुष्करवर समुद्र में बतलाये हैं और आगे द्वीपसमुद्रोंमें दूने-दूने बतलाये है । वृहत्संग्रहणीमें (गा० ६५) एक गाथाके द्वारा यह बतलाया है कि धातकीवण्डसे लेकर आगेके द्वीपों और समुद्रोंमें चन्द्रमाकी संख्या लानेके लिये तिगुना करके उसमें पहलेके द्वीपसमुद्रोंकी संख्याको जोड़ देनेसे आगेके द्वीप अथवा समुद्र में चन्द्रमाओंकी संख्या आ जाती है। जैसे धातकीखण्डमें १२ चन्द्रमा हैं। १२ x ३३६ । इसमें जम्बूद्वीपके २ और लवणके ४ चन्द्रमाओंको जोड़नेसे ४२ संख्या आती है। कालोदधिमें ४२ चन्द्र-सूर्य हैं। ४२ को तिगुना करके उसमें पहले के द्वीप समुद्रोंकी संख्याका प्रमाण जोड़ देनेसे पुष्करवरद्वीपके चन्द्र सूर्यका प्रमाण ४२४३१२६ + १८ = १४४ आता है । इसमेंसे ७२ चन्द्रसूर्य आभ्यन्तर पुष्करार्धमें और ७२ बाह्य पुष्करार्धमें हैं। तत्त्वार्थवातिक और हरिवंश पुराणमें ऐसा ही बतलाया है। हरिवंश पुराणमें तो संग्रहणीकी गाथाका करण सूत्रके अनुसार संस्कृत रूप भी दिया है। ज० द्वी०प० में ति०प० की ही तरह बाह्य पुष्कराके प्रथम वलयमें १४४ चन्द्रमा बतलाये हैं । तदनुसार पुष्करवर समुद्र के प्रथम वलयमें उससे दुगने अर्थात् २८८ होने चाहियें। किन्तु ज० द्वी०प० में १४४ ही बतलाये हैं और आगे १. 'पुष्करार्धे द्वासप्ततिः सूर्याः ।......"बाहये पुष्कराधं च ज्योतिषामियमेव संख्या । ततश्चर्तुगुणाः पुष्करवरोदे, ततः परा द्विगुणा द्विगुणा ज्योतिषां संख्या अवसेया-त० वा० पृ० १२० २. 'धायइखण्डप्पभिई उद्दिट्ठा तिगुणिया भवे चंदा। आइल्लचंद सहिआ अणं तराणंतरे खिते ॥६१॥-वृ० सं० । ३. धातक्यादिषु चन्द्रार्काः क्रमेण त्रिगुणाः पुनः । व्यतिक्रांतैर्युतास्ते स्युर्वीपे च जलधौ परे ॥३३॥ ह. पु० ६ स० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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