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________________ भूगोल - खगोल विषयक साहित्य : ७७ २. दूसरे उद्देशमें २१० गाथाएँ हैं । इस उद्देशमें जम्बूद्वीपके क्षेत्र विभागका वर्णन करते हुए उसमें भरतादि सात क्षेत्र तथा उनका विभाग करनेवाले हिमवान् आदि छे कुलाचल बतलाये हैं तथा उनके विस्तारादिका कथन किया है । इनके धनुष पृष्ठ, जीवा, चूलिका और वाण आदिका प्रमाण लानेके लिए गणित सूत्र भी दिये हैं । भरत और ऐरावत क्षेत्रके मध्यमें स्थित विजयार्ध पर्वतका भी वर्णन है । आगे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके भेदोंका उल्लेख करके सब विदेह क्षेत्रों, पाँच म्लेच्छ खण्डों और सब विद्याधर नगरोंमें सदा चतुर्थकाल वर्तमान बतलाया है और भोगभूमियोंमें प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल बतलाया है । प्रसंगवश इन कालोंमें होने वाली आयु, शरीरकी ऊँचाई आदिका भी कथन किया है और कौन जीव किन परिणामोंसे भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है यह भी बतलाया है । , मानुषोत्तर पर्वतसे आगे अन्तके स्वयंभूरमण द्वीपके मध्य में स्थित नगेन्द्र पर्वत पर्यन्त असंख्यात द्वीप समूद्रोंमें भोगभूमि की सी स्थिति रहती है और वहाँ तिर्यञ्च जीव ही रहते हैं, इत्यादि रूपसे सर्वत्र कालोंका निर्देश करते हुए अन्तिम छहों कालोंका स्वरूप बतलाया है । ३. तीसरे उद्देशमें २४६ गाथाएँ हैं । इसमें जम्बूद्वीपस्थ पर्वतों, नदियों और भोगभूमियोंका वर्णन है । ४. चतुर्थ उद्देशमें २९२ गाथाएँ हैं । इसी उद्देशमें मुख्य रूपसे जम्बूद्वीपस्थ विदेह क्षेत्रके मध्य में स्थित सुमेरु पर्वतके विस्तारादिका तथा उस पर स्थित नन्दन आदि वनोंके विस्तारादिका वर्णन है । प्रारम्भमें मेरुकी स्थिति बतलाते हुए लोकके आकारादिका वर्णन है, जो कुछ विचित्र है । यद्यपि गाथा १० से जो लोकका विस्तारादि बतलाया है वह तो सभी ग्रन्थोंमें पाया जाता है किन्तु गाथा ३से ९ तक जो कथन किया है वह अन्यत्र नहीं मिलता । यथा— लोककी स्थिति वलभीके आकार हैं । वह लोक कुल पर्वतके समान हैं । अधोलोकका आकार देवच्छन्दके सदृश, छज्जाके सदृश, तलघरके समान अथवा पक्षीके पंखके समान हैं आदि । ५. पाँचवें उद्देशमें १२५ गाथाएँ हैं । इसमें मेरु पर्वत पर स्थित जिनभवनका वर्णन है । ६. छठें उद्देशमें १७८ गाथाएं हैं । इसमें देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रोंका वर्णन है । इन क्षेत्रों में युगल रूपसे जन्म लेनेवाले स्त्री-पुरुष मरकर नियमसे स्वर्ग में देव होते हैं ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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