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________________ ७६ : जेनसाहित्यका इतिहास पूरा नाम जम्बूदीव पण्णत्ति संगह (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति संग्रह) है। संग्रह शब्दसे यह सूचित होता है कि ग्रन्थकारने किसी अन्य प्राचीन स्रोत परसे इसका संकलन किया है। __ आधार-ग्रंथके तेरहवें उद्देशके अन्तमें ग्रंथकारने लिखा है कि ऊर्ध्वलोक, अघोलोक, और तिर्यग्लोकसे सम्बद्ध जम्बूद्वीप निबद्ध शास्त्रका विषय परमेष्ठीके द्वारा भाषित है अतः वह पूर्वापरदोषसे रहित है ॥१४०॥ परमेष्ठीके द्वारा उपदिष्ट अर्थको ग्रहण कर गणधरदेवने उसे ग्रंथ रूपमें अथित किया। आचार्य परम्परासे आगत उस समीचीन ग्रन्थार्थका ही उपसंहार करके यहां संक्षेपसे लिखा गया है ॥१४२॥ अधिकार-इसमें तेरह उद्देश हैं-१. उपोद्घात, २. भरत ऐरावत वर्ष, ३. पर्वत नदी भोगभूमि, ४. महाविदेहाधिकार, ५. महाविदेहाधिकारके अन्तर्गत मन्दिर और जिनभवन वर्णन, ६. महाविदेहाधिकारके अन्तर्गत देवकुरु-उत्तरकुरु विन्यास प्रस्तार, ७. महाविदेहाधिकारके अन्तर्गत कच्छा विजय वर्णन, ८. महाविदेहाधिकारके अन्तर्गत पूर्वविदेह वर्णन, ९. अपर विदेह वर्णन, १०. लवण समुद्र वर्णन, ११. दीप-सागर, नरकगति, देवगति सिद्ध क्षेत्र वर्णन, १२. ज्योतिर्लोक वर्णन और १३. प्रमाण भेद वर्णन । विषय परिचय-प्रथम उद्देशमें केवल ७४ गाथाएं हैं। सर्व प्रथम छै गाथाओंसे अर्हत् सिद्ध आचार्य उपाध्याय और सर्व साधुकी वन्दना करके द्वीपसागर प्रज्ञप्ति रचनेकी प्रतिज्ञा की हैं । पश्चात् गा० ७में सर्वज्ञ गुणकी प्राप्तिकी प्रार्थना करके गा० ८में वर्धमान जिनेन्द्रको नमस्कार करके श्रुतगुरु परिपाटीको पथाक्रम कहनेकी प्रतिज्ञा की है और ( ९-१७ ) नौ गाथाओंमें उसका कथन किया है। यह वही गुरु परम्परा है जो तिलोयपण्णत्ति, धवला, जयधवला, हरिवंश पुराण तथा इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें पाई जाती हैं। यहाँ केवल गौतम गणधरसे लेकर लोहाचार्य पर्यन्त अंग ज्ञानियोंकी नामावली दी है उनकी काल गणना नहीं दी। आगे गा० १८में सागर द्वीप प्रज्ञप्तिको संक्षेपसे कहनेकी पुनः प्रतिज्ञा की हैं। गा० १९से प्रतिपाद्य विषयका आरम्भ करते हुए कहा गया है कि पच्चीस कोड़ा-कोड़ी उद्धार पल्य प्रमाण द्वीप सागरोंके मध्यमें एक लाख पोजन लम्बा चौड़ा और सूर्य मण्डलकी तरह गोल जम्बूद्वीप है। आगे जम्बूद्वीपकी परिधि, उसके निकालनेकी विधि, जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल, जम्बूद्वीपकी वेदिकाका विस्तारादि तथा जम्बूद्वीपके अन्तर्गत पर्वत नदी आदिकी वेदिकाओंका वर्णन है। अन्तमें नदी तट, पर्वत, उद्यान, भवन, शाल्मलि वृक्ष, जम्बूवृक्ष आदिके ऊपर स्थित जिन प्रतिमाओंको नमस्कार किया है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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