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________________ भूगोल -खगोल विषयक साहित्य : ७५ त्रिलोकसार टीका त्रिलोक सारके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य माधवचन्द्र विद्य ने त्रिलोकसारकी संस्कृत टीका रची है जो मूल ग्रन्थके साथ प्रकाशित हो चुकी है । टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिमें माधवचन्द्र त्रैविद्य देवने अपनेको 'त्रिलोकसार मलंकरिष्णु' त्रिलोकसारको अलंकृत करने वाला लिखा । उन्होंने त्रिलोकसारको केवल अपनी टीकासे ही अलंकृत नहीं किया किन्तु अपने गुरु नेमिचन्द्रके अभिप्रायके अनुसार कुछ गाथाएँ भी यत्र तत्र रचकर त्रिलोकसारमें सम्मिलित की हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि माधवचन्द्र अच्छे गणितज्ञ भी थे। क्योंकि नरतिर्यग्लोकाधिकारमें जो भरतादि क्षेत्रोंके जीवा और धनुषका प्रमाण करणसूत्रों के द्वारा आनयन करके बतलाया है उसमें माधव ९ और चन्द्र ९ के अर्थात् १९ के व्याजसे माधवचन्द्रका नाम देकर उस सब गणितको माधवचन्द्रके द्वारा कथित बतलाया है । चूँकि माधवचन्द्र नेमिचन्द्राचार्यके समकालीन थे और त्रिलोक सारकी रचनामें भी उनका पूरा सहयोग था अतः त्रिलोकसारकी रचनाके साथ ही अथवा उसके पश्चात् ही उसकी टीकाका निर्माण उन्होंने किया हो, यह सम्भव है । नेमिचन्द्राचार्य विक्रमकी ग्यारवीं सदीके पूर्वार्ध में हुए हैं । अतः उनके सहयोगी शिष्यका समय भी वही समझना चाहिये । और उसी समयके लगभग टीका रची गई होगी। इनकी अन्य किसी कृतिका पता नही चलता । 'जंबूदीप पण्णत्ति संगह ' जम्बूद्वीप पण्णति संग्रह नामक ग्रन्थ लोकानुयोगका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसकी प्रस्तावनासे ज्ञात होता है कि प्रतियों पर इस ग्रन्थका नाम जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति अंकित पाया जाता है । किन्तु उद्देशोंकी पुष्पिकाओंके अनुमार ग्रन्थका १. 'तं त्रिलोकसारमलंकरिष्णुर्माधवचन्द्रत्रं विद्यदेवो अपि आत्मीयमौद्धत्यं परिहरति — 'गुरुणेमिचंदसम्मदकदिवयगाहा तर्हि तहिं रइदा । माहवचंद तिविज्जेणिणमणुसरणिज्जमज्जेहि ॥ १ ॥ - त्रि० सा० पृ० ४०५ । 'जीवदु विदेहमज्झे लक्खा परिहिदलमेवमवरद्ध े । माहवचंदुद्धरिया गुणधम्मपसिद्धसव्वकला ।। ७७७ ।। टी० - ' प्रसिद्धः पूर्वोक्ताः सर्वाः कला योजनांशा अंकसंज्ञया माधवचन्द्राकेन १९ उद्धता भक्ता: पक्षे गुणेषु धर्मे च प्रसिद्धाः सर्वाः कलाः माघवचन्द्रत्र विद्येशिनोद्धृताः प्रकाशिताः ।। ७७७ ॥ - त्रि०स०
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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