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________________ ७४ : जेनसाहित्यका इतिहास ६. छठे नर तिर्यग्लोकाधिकारमें पहले जम्बूद्वीपके भरतादि क्षेत्रों, हिमवान आदि पर्वतों, उन पर स्थित पन आदि हृदों, उनसे निकलने वाली गंगा सिन्धु आदि नदियों, मेरु पर्वत व उसके भद्रशाल आदि वनोंका कथन है। आगे जम्बू वृक्ष, भोगभूमि और कर्म भूमियाँ, दिग्गज पर्वत, तथा विदेह देशोंका वर्णन है। चूंकि विदेहस्थ देशोंमें सदा तीर्थकर, चक्रवर्ती, अर्धचक्री आदि रहते हैं अतः उनकी संख्या बतलाकर चक्रवर्तीकी सम्पत्ति तथा राजा अधिराजा आदिका लक्षण बतलाया है । आगे धातकी खण्ड और पुष्करार्धमें स्थित मेरुओंके व्यासादिका कथन है। और करण सूत्रोंके द्वारा भरतादि क्षेत्रोंका धनुः, वाण, जीवा आदि निकालनेकी विधि तथा स्थूल व सूक्ष्म क्षेत्रफल निकाल कर बतलाया है। ___ गाथा ७०९ से भरत और ऐरावत क्षेत्रमें छह कालों के द्वारा होने वाले परिवर्तनका विस्तारसे कथन है। उसमें छहों कालोंमें जीवोंकी आयुका प्रमाण, मनुष्यों के शरीरकी ऊँचाई, शरीरका रंग, आहारका क्रम, भोगभूमिका स्वरूप, कर्म भूमिके प्रवेशके आरम्भमें होनेवाले चौदह कुल करोंका वर्णन, चतुर्थ कालमें उत्पन्न हुए सठ शलाका पुरुषोंका वर्णन है। वेसठ शलाका पुरुषोंके वर्णनसे उनके सम्बन्धकी आवश्यक बातोंकी जानकारी हो जाती है। फिर गाथा ८५० से शक राजा और कल्कि राजाकी उत्पत्तिका समय बतलाया है कि वीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजा हुआ और शक राजासे ३९४ वर्ष ७ मास बीतने पर कल्की हुआ। तथा लिखा है कि प्रत्येक एक हजार वर्षके पश्चात् एक कल्कि होता है । चूँकि पांचवा काल इक्कीस हजार वर्षका होता है । अतः उसमें इक्कीस कल्कि होते हैं । अन्तिम कल्किके अत्याचारोंके फलस्वरूप उसके साथ ही धर्म, राजा और अग्निका अन्त हो जाता है और छठे कालका प्रवेश होता है वह भी इक्कीस हजारका वर्ष है। उसके अन्तमें प्रलयकाल होता है। विषली अग्निकी वर्षासे सब जन नष्ट हो जाते हैं। बहुतसे मनुष्य पर्वत आदिकी कन्दराओंमें छिप जाते हैं। उत्सर्पिणी कालका प्रवेश होने पर जब सुवर्षासे पृथ्वीकी ऊष्मा शान्त होती है तो पर्वतोंकी गुफाओंमें छिपे मनुष्य उनसे निकलकर पृथ्वी पर बसने लगते हैं और इस तरह पुनः कर्म भूमिका प्रवेश होता है। उसके आरम्भमें पुनः चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं जो जनताको जीवनोपयोगी शिक्षा देते हैं। तीसरा काल आने पर पुनः त्रसठ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं। यह सब कथन करनेके पश्चात् लवण समुद्रका वर्णन है फिर घातकी खण्ड और पुष्करात्रका वर्णन है। आगे मानुषोत्तर, कुण्डल पर्वत और रुचक पर्वतका कथन है। आगे नन्दीश्वर द्वीपमें स्थित जिनालयोंका वर्णन है। इस तरह त्रिलोकसारमें तीनों लोकोंका सारभूत कथन दिया गया है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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